लेखक राजेन्द्र कुमार शास्त्री "गुरु" द्वारा लिखित उपन्यास (नाग कन्या-एक रहस्य) का दूसरा सत्र यहाँ पढ़ें-

भाग-1

वीरप्रताप को अधोमती राज्य का राजा बने कुछ ही समय हुआ था की नाग कन्या ने निर्णय लिया की वो अपनी नाग मणि को नागराज वैशाखी के हवाले कर दे. चूंकि अब वह हमेशा के लिए अधोमती राज्य में ही रहने वाली थी जो की नागलोक के नियम के मुताबिक नहीं था. खैर वैशाखी ने नागकन्या से मणि को सहर्ष ग्रहण कर लिया और नाग कन्या के आगे के जीवन के लिए शुभ मंगल की कामना की. उसके एक वर्ष पश्चात ही नाग कन्या ने एक सुशिल बेटे को जन्म दिया. वीरप्रताप के सभी दोस्त, मणिकृतिका और उसके माता-पिता भी खुश थे. नाग कन्या भी खुश थी क्योंकि आखिर वीरप्रताप और उसके प्यार को नया मुकाम मिल गया था. इधर मणिकृतिका ने भी अपनी जैसी ही एक बहादुर और सुंदरबेटी को जन्म दिया. दोनों बच्चो का पालनपोषण शाही अंदाज में हो रहा था. इसी दौरान मानिकेय ने मणिकृतिका को अपनी सारी विद्याओं में पारंगत कर दिया चूंकि वह अधोमती राज्य की मुख्य सेनापति थी. अगले एक साल में ही मानिकेय और वीर प्रताप के बाकी के सभी दोस्तों की शादी हो गई थी. हालाँकि मानिकेय का विवाह किसी लकड़ी से बनाई गई लड़की से होने के बजाय पास ही के राज्य के मुख्य प्रधान मंत्री की बेटी सुधांशी के साथ हुआ. शीघ्र ही उनके भी एक मानिकेय की तरह ही बुद्धिमान बेटा पैदा हुआ. इस तरह से मीणा पुत्र, वीरप्रताप और मानिकेय इन तीनो के बच्चो में उम्र का ज्यादा फर्क नहीं रह गया. मणिकृतिका और मीणा पुत्र की बेटी अर्पिता अपने छोटे भाई शंखवर्मन (मानिकेय पुत्र) का खूब ध्यान रखती तो वहीँ राजकुमार और नाग कन्या का बेटा (शत्रुजीत) उन दोनों से बड़ा था ऐसे में वह एक बड़े भाई होने का फर्ज हर बार निभाता. दोनों भाई हर रक्षा बंधन को अपनी बहन अर्पिता से राखी बंधवाते तो वही बहन भी अपनी मन चाही वस्तू अपने दोनों भाईयों से मांग लेती. जब उन तीनो को एक साथ खेलता कोई देख लेता तो कोई भी यकींन नहीं कर पाता की वो अलग-अलग माता-पिता के बेटे-बेटी हैं.
अगले बीस साल तक सब सामान्य रहा. वीरप्रताप के माता-पिता और उसकी भुआ का देहांत हो गया था. नाग कन्या, मणिकृतिका, वीरप्रताप और उसके बाकी के सभी दोस्त अब प्रोढ़ हो चुके थे. पिछले बीस सालो में बहुत कुछ बदल गया. अर्पिता एक नटखट बाला से एक सुन्दर युवती बन गई. इधर शत्रुजीत अपने पिता के अनुरूप बहादुर हो गया व शंख वर्मन अपने पिता के अनुरूप बुद्धि मान. जीत को हमेशा शंख के साथ घूमने जाने का शोख था. वे दोनों कहीं भी चले जाते थे.
एक रोज वे दोनों पास ही के राज्य महेंद्रपुर के एक मेले में घूमने गए. दोनों ने अपनी बहन अर्पिता के लिए पायल खरीदी और जैसे ही जाने लगे शत्रुजीत की नजर एक सुन्दर युवती पर पड़ी. उसकी नजर उसी पर ही टिकी रह गई. लहरों से सुंदर बलखाते उसके केश, तनिक सी नजरे उठाकर देखो तो गहरी रहस्यमयी झील सी उसकी नीली आँखे, तीखा नाक, गुलाब की कलि की पंखुड़ियों से अर्ध लालिमा लिए उसके होठ और उनके मध्य से सफ़ेद शंख से झांकते उसके दांत और गहरे गर्त सी उसकी नाभि. दिखने में वो किसी अप्सरा से कम नहीं थी. लेकिन जीत को उसकी सुन्दरता से ज्यादा मोहित उसकी चंचलता ने किया. उसकी नजर तो उसकी रहस्यमयी आँखों पर ही टिकी रह गई. ना जाने जीत ने उसकी आँखों में ऐसा क्या देख लिया था की उसकी नजर उसके चेहरे से हट ही नहीं रही थी. इधर जैसे ही उस युवती को पता चलता है की जीत उसे एकटक देख रहा है तो वह कुछ समय के लिए तो उसकी तरफ देखती है लेकिन फिर लज्जावंश वह अपना मुहं फेर लेती है. लेकिन जीत उसे एकटक देखे जा रहा था. न जाने क्यों जीत की नजरें चाहकर भी उस युवती को छोड़ नहीं पा रही थी. वह तो उन्ही में खो सा गया था. इधर जब शंख को जीत जब एक ही जगह रुका हुआ पाता है तो. वह उसके बगल में आकर धीमे से कहता है- उधर क्या देख रहे हो भैया?
जीत-कुछ नहीं यार.
शंख- कुछ भी नहीं?
जीत- हाँ! कुछ भी नहीं.
शंख- ठीक है फिर घर चलते हैं. शाम हो चुकी है. हमें अपने राज्य भी वापस लौटना है. देर हो गई तो पिताजी और तातश्री से डांट सुननी पड़ेगी.
जीत ने मुस्कुराते हुए कहा- हाँ! और भुआ (मणिकृतिका) तो एक घंटे तक सभा लगा देगी हमारी.
शंख- हाँ! भैया ये बिलकुल सही कहा आपने. वो एक ही पल में इतने सवाल दाग देती हैं की पहले का जवाब देने के बारे में सोचो तो इतने में दस सवाल और आ जाते हैं.
जीत ने मुस्कुराते हुए कहा- डरते क्यों हो मेरे भाई मैं हूँ ना तुम्हारे साथ. चलो अभी पहुँच जाएँगे हम. वैसे भी हमारे पास आकाश और साकांश ( दो घोड़े) हैं जो हवा की गति से दौड़ते हैं.
शंख- हाँ! भैया चलो चलते हैं.
फिर अगले ही पल वे वहां से जाने लगते हैं. इधर जीत वापस उस सुन्दर सी युवती को देखता है जिसने शाही पौशाख पहन रखी थी. उसकी नजर पुन: उस युवती पर टिकी रह जाती है. वह युवती भी उसे एकटक देखने लग जाती है. ऐसा लग रहा था मानो जीत उसकी आंखों में छुपे रहस्य को तलाशना चाहता था. उसके कदम जैसे ही रुकते हैं तो शंख उसे पुन: सपने की दुनिया से यथार्थ के धरातल पर लाकर पटक देता है. वह उसे फिर से कहता है- क्या देख रहे हो भैया? चलो न.
जीत-हाँ! हाँ! कुछ नहीं चलो. चलते हैं..
इतना कहकर जीत पुन: आगे की तरफ बढ़ जाता है. वह जब पीछे मुड़कर देखता है तो वह युवती उसे देख रही थी. उसकी आँखों में एक गजब का आकर्षण था जो जीत को अपनी ओर आकर्षित कर रहा था. लेकिन वह रुकने की बजाय शंख के साथ चला जाता है. इधर वह युवती भी चली जाती है.
बीच रास्ते में जब जीत शंख से बात नहीं करता है तो शंख जीत से पूछता है- भैया आज क्या बात है आप कुछ बोल नहीं रहे हैं?
जीत- नहीं छोटू यार ऐसी कोई बात नहीं है.
शंख- भैया मुझसे कुछ भी मत छुपाओ मैं सब जानता हूँ. आपकी आँखे आज कुछ अलग ही बता रही हैं. बोलो न क्या बात है? शायद मैं आपकी मदद कर पाऊं?
जीत- क्या बताऊँ शंख मुझे भी कुछ नहीं पता की वो कौन है?
शंख- किसकी बात कर रहे हो भैया?
जीत- आज मैंने मेले में एक लड़की को देखा. दिखने में बड़ी खूबसूरत ही नहीं थी बल्कि न जाने क्यों मुझे उसकी आँखे रहस्यमयी लग रही थी.
शंख- ओह! तो ये लड़की का लफड़ा है. जाने दो भैया. सभी लड़कियां रहस्यमयी ही होती हैं. मैंने सुना है कि कभी लड़कियों को ज्यादा गंभीरता से नहीं लेना चाहिए. क्योंकि एक बार आप लड़कियों के बारे में गंभीर हो गए तो आपका पतन होना निश्चित है.
जीत- ये बात तुम्हे किसने बताई. तुम भी न छोटू. ऐसा कुछ नहीं होता. मुझे सच में वो लड़की बाकी की लड़कियों से भिन्न लगी.
शंख- कहीं भैया आपको उससे पहली नजर वाला प्यार तो नहीं हो गया है न.
जीत- पता नहीं यार लेकिन न जाने क्यों मन कर रहा है की मैं वापस जाकर इस सम्बन्ध में उससे बात करूँ.
शंख- भैया ऐसी गलती मत करना. वरना भुआ हमारी खाल उधेड़ लेंगी. मेरी मानो जल्दी से चलते हैं.
जीत- नहीं यार. उससे बात करने का दिल कर रहा है.
शंख- भैया अपनी अक्ल ठिकाने लगाओ. हम उस लड़की के विषय में कुछ भी नहीं जानते हैं. ऊपर से अब रात होने वाली है. क्या पता वह कहाँ रहती है?
जीत- पर?
शंख- पर वर कुछ नहीं भैया.. घर चलते हैं..
इतना कहकर उसने अपने घोड़े को पुन: अधोमती राज्य की तरफ बढ़ा लिया लेकिन जीत का मन अब भी उस लड़की से मिलने का कर रहा था.
क्रमश..

  भाग 2

सूरज अस्तांचल में डूबने को है. राजकुमार शत्रुजीत और शंख दोनों अधोमती राज्य की ओर बढ़ रहे हैं लेकिन अचानक जीत ने अपने घोड़े को रोक लिया. शंख ने आश्चर्यचकित होकर कहा- भैया घोड़े को रोक क्यों दिया? अगर हम समय पर राज्य नहीं पहुंचे तो फिर भुआ माँ हमें डांटेंगी.
जीत- लेकिन शंख क्या करूं यार? मुझे बार-बार उस लड़की की रहस्यमयी आँखों के बारे में ख्याल आ रहा है.
शंख- कुछ मत करो भैया घर चलो.
जीत- नहीं यार मुझे जाना है. मुझे जानना है की वह कौन है?
शंख- भैया मुर्ख मत बनो. हमें नहीं पता की वह कौन है और किस राज्य की है.
जीत( मुस्कुराते हुए) तो क्या हुआ पता कर लेते हैं?
फिर उसने घोड़े को वापस महेंद्रपुर राज्य की तरफ मोड़ दिया. शंख ने जीत को जोर से कहा- भैया ये क्या बचपना है?
जीत (मुस्कुराते हुए) छुटकू ये बचपना नहीं जीद है मेरे भाई. चल चलते हैं. मैं भी तो देखू की उसने अपनी समन्दर सी गहरी आँखों में क्या-क्या राज छुपा रखे हैं?
शंख -भैया तुम मरवाओगे यार.
जीत- अरे कुछ नहीं होगा. चल चलते हैं. डरो मत. मैं हूँ न तुम्हारे साथ.
शंख ने अनमने ढंग से कहा- ठीक है. चलो चलते हैं. लेकिन अगर भुआ ने डांटा तो मैं बोल दूंगा की भैया ने कहा था रुकने को.
जीत- अरे! उसकी तुम फ़िक्र मत करो मैं बोल दूंगा की छुटकू की तबियत ख़राब हो गई थी इस लिए रात-रात रुक गए थे.
शंख- अच्छा तो भैया तुम क्या चाहते हो की मैं झूठ बोलूँगा?
जीत- तो क्या हर्ज है छुटकू? वैसे भी अपने भाई के लिए तूँ इतना भी नहीं कर सकता क्या?
शंख- ठीक है कर दूंगा लेकिन..
जीत- लेकिन क्या शंख?
शंख- लेकिन बदले में मुझे आप धनुर्विद्या सिखाओगे अच्छे से.
जीत- अरे तुम्हारे लिए कुछ भी करूँगा मेरे भाई चलो चलते हैं.
फिर वे दोनों वापस महेंद्रपुर राज्य की तरफ चले जाते हैं. उन दोनों के घोड़े हवा से बाते कर रहे थे. शीघ्र ही वे दोनों महेंद्रपुर के मेले की उसी दूकान के आगे आ जाते हैं जहाँ से वह लड़की अपने लिए कुछ सामन खरीद रही थी. जीत ने मुस्कुराते हुए उस दूकानदार से कहा- भैया अभी जो कुछ देर पहले एक सफ़ेद पारिधान में जो लड़की थी क्या आप बता सकते हैं वो कौन थी?
दूकानदार- कौनसी लड़की... वो लड़की जिसके साथ अन्य भी चार-पांच युवतियां थी. और उसने लाल रंग का दुपट्टा पहन रखा था.
जीत- हाँ.. हाँ वही. वही..
दूकानदार- अरे पागल हो गए हो क्या तुम? वह कोई साधारण लड़की नहीं थी. वह महेंद्रपुर के स्वर्गीय महाराजा अमरपाल की इकलौती बेटी निवेदिता थी.
जीत मन में सोचता है- अरे! वाह वह तो राजकुमारी निकली. कोई न अब तो मुझे उसकी आँखों में छुपे रहस्य को जानने का हक है. आखिर वह मुझे उस तरह से क्यों देख रही थी? मुझे जानना ही होगा की उसके पीछे उसकी मंसा क्या है?
जब राजकुमार शत्रुजीत कुछ देर नहीं बोलता है तो वह दूकानदार उससे कहता है- कहाँ खो गए दोस्त. उसके बारे में ज्यादा मत सोचो. अपने घर निकल लो. तुम नहीं जानते राजकुमारी के सौतेले भाई को. अगर उसे पता चल गया न की तुम उसकी बहन के बारे में पूछताछ कर रहे थे तो वे तुम्हे भरे बाजार में लटका देंगे.
जीत- अच्छा!
दूकानदार- हाँ भई.. इसमें कोई सक नहीं है..
जीत ने मुस्कुराते हुए कहा- ठीक है भाई. nआपका बहुत-बहुत शुक्रिया ये सब बताने के लिए.
फिर वह शंख के साथ जैसे ही वहां से कुछ दूर जाता है तो शंख कहता है- चलो भाई वापस चलते हैं. अगर हम पकडे गए तो मारे जाएंगे.
जीत- अरे शंख तुम चिंता मत करो. हमे जाना ही होगा. मुझे राजकुमारी से मिलना ही होगा. न जाने ऐसा क्यों लग रहा था की वह मुझसे कुछ कहना चाहती हो.

शंख- भाई वह तुम्हे कुछ नहीं कहना चाहती थी. मेरी मानो वापस चलते हैं.

जीत- नहीं शंख.. अब अगर यहाँ तक वापस आ ही गए हैं तो राजकुमारी से मिलना तो बनता है. चलो तुम मेरे पीछे-पीछे आओ...
फिर राजकुमार शत्रुजीत और शंख दोनों राजमहल की तरफ चल पड़ते हैं. पूरा महल एक ऊँची पहाड़ी पर स्थित था. महल के ऊपर तक जाने का रास्ता बहुत ही दुर्गम था. इस लिए शत्रु जीत और शंखवर्मन ने अपने घोड़ो को पहाड़ी की तलहटी में ही छोड़ दिया और खुद दोनों पहाड़ी के ऊपर पहरेदारों से बचते-बचाते हुए आगे बढ़ रहे थे. वे बिना किसी आवाज के आगे बढ़ रहे थे. शंख वर्मन के मन में डर का वास था. उसे नहीं पता था की क्या होगा? लेकिन उसे इस बात का पता था की अगर वे पकडे गए तो उनकी मौत निश्चित है लेकिन शत्रु जीत के मन में सिर्फ राजकुमारी निवेदिता से मिलने का ख्याल था. वे जैसे ही महल के परकोटे(चारदीवारी) के समीप पहुँचते हैं- शंख वर्मन धीमे से कांपती हुई आवाज में कहता है- भैया. तुम महल के अन्दर तो जा रहे हो लेकिन तुम्हे कैसे पता चलेगा की राजकुमारी का कक्ष कौनसा है?
जीत- उसकी तुम चिंता मत करो. तुम तो बस मेरा बाहर इंतज़ार करो. अगर मैं समय रहते वापस न आऊं तो तुम पिताजी तक ये खबर पहुंचा देना.
शंख डरते हुए- भैया क्यों कर रहे हो ऐसा?
जीत- देखो शंख तुम्हे पता है मैं वही करता हूँ जो मेरा दिल कहता है और मेरा दिल कहता है की राजकुमारी शायद मुझसे कुछ कहना चाहती थी. मुझे यह जानना है की वह मुझसे क्या कहना चाहती थी. चल अभी के लिए अलविदा मेरे भाई. देखते हैं राजकुमारी की आँखे शत्रुजीत को क्या कहना चाहती हैं?
इतना कहकर वह दीवार को फांदकर महल के अन्दर प्रवेश कर जाता है महल के अहाते में अमरूदो का बाग़ था. राजकुमार शत्रु जीत जैसे ही बाग़ के मध्य से गुजर रहा था अचानक एक मोर जो की बाग़ के मध्य एक पौधे के निचे बैठा था डर के मारे जोर से बोला. जिससे महल के एक पहरेदार की नींद खुल गई. वह एक मशाल लेकर अमरूदों की बाग़ की तरफ बढ़ने लगता है.

क्रमश....

भाग-3

राजकुमार शत्रुजीत मुख्य महल की तरफ बढ़ रहा था इसी दौरान उसे अचानक उस पहरेदार के कदमो की आवाज सुनाई दी और उसने अपनी तरफ मशाल लिए उस पहरेदार को आते देखा. उस पहरेदार को अमरूदों के बाग़ में हलचल दिखाई दी. बूढ़े पहरेदार ने जोर से आवाज दी- कौन है वहां?
वह लगातार राजकुमार की तरफ बढ़ रहा था. राजकुमार घुटनों के बल महल की तरफ बढ़ रहा था चूंकि अगर वह वापस लौटने का प्रयास करता तो वह उस पहरेदार की पकड़ में आ जाता. उस बूढ़े पहरेदार ने पुन: आवाज दी- कौन है वहां? सुनता नहीं क्या?
`कौन है चाचाजी इतनी रात गए? कहीं आपने फिर तो नींद में किसी की आहट नहीं सुन ली? ` एक दूसरा पहरेदार वहां दूसरी मशाल लेकर आते हुए कहता है.
नहीं बेटा ऐसी कोई बात नहीं है. मैंने सच में किसी के चलने की आवाज इस बाग़ में सुनी है.
दूसरा पहरेदार- नहीं चाचाजी भला इतनी रात को कौन आएगा? वो भी इतने पहरेदारों के होने के बावजूद भी?
इधर वो दोनों बाते कर रहे थे तो राजकुमार बचते-बचाते सयोंगवंश राजकुमारी के कक्ष के पीछे के स्थान पर चला गया जहाँ अक्सर राजकुमारी सुबह को धुप सेकती थी. वे दोनों आपस में बात कर रहे थे की अचानक फिर से उस बूढ़े पहरेदार की नजर राजकुमार शत्रुजीत पर पड़ती है. वह जोर से उस जवान पहरेदार को आवाज देते हुए कहता है- वो रहा? देखो तो जरा?
कहाँ है चाचाजी?
बूढा पहरेदार- अरे! देखो तो जरा.
लेकिन जैसे ही वह बूढा पहरेदार दूसरी बार उधर देखता है राजकुमार वहां से गायब मिलता है. वह फिर से कहता है- अरे! ये कैसे हो गया? अभी तो मैंने उसे देखा था?
दूसरा पहरेदार- लेकिन चाचाजी मुझे तो दिखाई नहीं दिया. लगता है आपकी आज तबियत ठीक नहीं है. चलो आप जाकर आराम करो तब तक मैं संभालता हूँ.
बूढा पहरेदार- अरे! बेटा मैं झूठ नहीं बोल रहा. तुम यकीन करो मेरी बातो का.
दूसरा पहरेदार- लेकिन चाचाजी?
बूढा पहरेदार- लेकिन वेकिन कुछ नहीं. तुम चलो मेरे साथ.
फिर वे दोनों राजकुमारी के कक्ष की तरफ बढ़ते हैं. इधर राजकुमार एक खम्भे के सहारे छुपा होता है. वे दोनों पहरेदार जोर से आवाज देते हैं- कौन है वहां? जो कोई भी है चुप-चाप अपने आपको हमारे हवाले कर दो वर्ना जान से हाथ धो बैठोगे.
इधर राजकुमार धीरे-धीरे राजकुमारी के कक्ष की तरफ बढ़ रहा होता है. वे दोनों पहरेदार उसे पकड़ने पर ही होते हैं. वे जोर से बोलते हैं- हमने कहा है कौन है वहां?
इधर राजकुमार राजकुमारी के कक्ष के मुख्य दरवाजे के बिलकुल करीब था. वहां छुपने की बिलकुल भी जगह नहीं थी. वे जैसे ही बरामदे में पहुंचकर राजकुमार को पकड़ने लगते हैं पीछे से राजकुमारी ने अचानक दरवाजा खोला और राजकुमार को अन्दर की तरफ खिंच लिया और पीछे से दरवाजा बंद कर लिया.
राजकुमारी ने राजकुमार के मुहं पर हाथ लगा लिया और धीमे से फुल्फुसाया- तुम? तुम और यहाँ कैसे?
वो आगे कुछ बोल पाती उससे पहले ही पहरेदार ने राजकुमारी के कक्ष का दरवाजा खटखटाते हुए पूछा- राजकुमारी निवेदिता आपके कक्ष की तरफ कोई लड़का आया था..
राजकुमारी ने दरवाजा खोला और हडबडाहट में कहा- न.. न.. नहीं तो.. मैंने तो नहीं देखा लेकिन मेरी भी आँख तब खुल गई जब मैंने आपकी आवाज सुनी. क्या सच में किसी ने प्रवेश किया था?

दूसरा पहरेदार- नहीं तो.. ये तो बस चाचाजी को ऐसे ही लगा. ठीक है राजकुमारी जी माफ़ी चाहता हूँ. शुभरात्रि.
राजकुमारी- शुभरात्रि!
इतना कहकर वे दोनों वहां से चले गए इधर राजकुमार ने राहत की सांस ली. राजकुमारी उसकी तरफ बढ़ते हुए कहती है- तुम? तुम यहाँ कैसे और तुम्हे कैसे पता चला की यही मेरा कक्ष है?
जीत- ने राजकुमारी की आँखों में झांकते हुए कहा- मुझे? मुझे बस मेरे दिल ने बता दिया.
राजकुमारी- अच्छा! अगर मैंने समय पर दरवाजा नहीं खोला होता न तो तुम्हारे इस दिल को दरबार में मेरा भाई सबके सामने सीना चीरकर निकाल लेता. समझे.
इधर राजकुमारी शत्रुजीत को उसकी मुर्खता पर डांट रही है तो बाहर वे पहरेदार आपस में बात करते हुए जाते हैं-
दूसरा पहरेदार- मैंने कहा था न चाचाजी महल में किसी ने प्रवेश नहीं किया था.
बूढा पहरेदार- लेकिन बेटे मैंने स्वयं उसे देखा है.
दूसरा पहरेदार- चाचाजी आप तो अब वही राग लेकर बैठ गए. लगता है आपको आराम की जरुरत है. आप जाओ और सो जाओ.
इतना कहकर वो उस बूढ़े पहरेदार को वहां से जाने के लिए बोल देता है. इधर राजकुमार राजकुमारी की आँखों में जब देखता है तो वह असहज होकर उससे पूछती है – क्या देख रहे हो?
जीत- वही जो मेले में नहीं देख पाया था और न ही जान पाया था.
राजकुमारी- अच्छा लेकिन कुछ बाते बताई नहीं जाती.
जीत- लेकिन मुझे तुम्हारी इन झील से गहरी आँखों में छुपे राज को जानना है.
राजकुमारी- तुम पागल हो गए हो क्या? बोला न कोई राज नहीं है. वैसे भी तुम्हे क्यों जानना है मेरे राज के बारे में? मैं तुम्हारी लगती ही क्या हूँ?
जीत- पता नहीं. लेकिन जब से मेले में मैंने तुम्हे देखा. न जाने ऐसा क्यों लग रहा था की तुम्हारे साथ कोई रिश्ता न होने के बावजूद भी लग रहा है की बहुत पुराना रिश्ता है?
राजकुमारी- अच्छा! लगता है तुम बहुत से प्रेमग्रन्थ पढ़ते हो तभी इस तरह बोल रहे हो. लेकीन असली जिंदगी में इन सब का महत्व नहीं होता है.
जीत- लेकिन मेरा मानना कुछ और है. अगर तुम उचित समझो तो मुझे बता सकती हो की मुझे ऐसा क्यों लग रहा है की तुम मुझे मेले में कुछ कहना चाहती थी.
राजकुमारी- ऐसा कुछ भी नहीं है.
इतना कहकर उसने मुहं फेर लिया. राजकुमार शत्रुजीत निवेदिता की आँखों में छीपे रहस्य के बारे में जानना चाहता था लेकिन शायद राजकुमारी निवेदिता उसे बताना नहीं चाहती थी.
क्रमश.......

भाग-4



इधर शंख शत्रुजीत का महल के परकोटे के पास में इंतज़ार कर रहा है. वह जंगल में अकेला खड़ा है. सभी पहरेदार निश्चिंत होकर आराम कर रहें हैं. कुछ तो सो भी गए हैं. शंख कुछ बेचेन हो रहा है. उसे डर लगा रहा है की अगर समय रहते जीत वापस महल से बाहर नहीं आया तो फिर दिक्कत हो जाएगी. वह पकड़ा भी जा सकता है. न जाने कितने ही बुरे ख्यालों ने शंख  को घेरे रखा.


शत्रुजीत राजकुमारी के साथ वार्तालाप कर रहा है. 


राजकुमारी निवेदिता उसे अपने बारे में कुछ भी नहीं बताती है. वह शांत हैं. शत्रुजीत थक हारकर उसे अपने करीब खींचकर कहता है- निवेदिता! मैंने तुम्हे कितनी बार कहा है की तुम्हारी आँखों में जो रहस्य छिपा है वो शीघ्र ही मुझे बताओ.

निवेदिता- अगर नहीं बताया तो? तुम सभी मर्दलोग ऐसे ही होते हो क्या? जब किसी औरत का विश्वास नहीं जीत पाते हो तो क्रोधित होकर उससे पूछने की कोशिश करते हो?

राजकुमार शांत होकर उससे पूछता है- तो बताओ तुम्हारा विश्वास जितने के लिए क्या करना होगा?

निवेदिता- जाने दो राजकुमार. क्यों खामखा अपनी मौत को बुलावा देते हो? वैसे भी मेरे आँखों में कोई रहस्य नहीं है. तुम्हे बस ऐसे ही नजर आ रहा है.

जीत- अच्छा! निवेदिता जब मैंने तुम्हे पहली बार उस मेले में देखा था तब भी मुझे तुम्हारी आँखों में कुछ राज दिखाई दे रहा था. ऐसा लग रहा था मानो तुम्हे मेरी जरुरत है. जैसे तुम किसी बड़ी मुशीबत में हो?

निवेदिया- ऐसा कुछ भी नहीं है राजकुमार. तुम समय रहते यहाँ से निकल जाओ. कहीं मेरे चक्कर में तुम अपनी जान से हाथ न धो बैठो.

जीत- क्या मतलब? तुम क्या कहना चाहती हो? निवेदिता मेरी जान, मेरा दिल और मेरी आत्मा तो उस मेले में तुम्हारी एक नजर ही ले गई थी तो भला अब जान की किसे परवाह है.


निवेदिता- अच्छा लेकिन ये इश्क हद से ज्यादा काम का नहीं होता है. अभी भी वक्त है संभल जाओ राजकुमार. अपने राज्य वापस लौट जाओ. महल की पहरेदारो के हत्थे अगर तुम चढ़ गए तो पकडे जाओगे और फिर मेरा भाई तुम्हारा क्या हश्र करेगा इसके बारे में अंदाजा भी नहीं है तुम्हे.


जीत- सच्चा प्यार करने वाले अंजाम को नहीं देखते. तुम मुझे बताओ मुझे तुम्हारा विश्वास  पाने के लिए क्या करना होगा?

निवेदिता- रहने दो राजकुमार. ये इश्क की खुमारी शारीरिक आकर्षण की है और आकर्षण से होने वाला प्रेम ज्यादा देर तक नहीं टिकता है. तुम वापस अपने राज्य चले जाओ तुम्हारी भलाई इसी में है.


जीत ने गहरी सांस लेते हुए कहा- वाह! बहुत अच्छा आंकलन किया है तुमने मेरे इश्क का. अगर तुम्हे मेरे इश्क पर शक है तो एक काम करो अभी इसी वक्त होहल्ला कर दो. सभी पहरेदार आकर मुझे बंदी बना लेंगे और तुम्हारा भाई मुझे कल सुबह चौराहे पर लटका देगा. लेकिन अगर तुम्हे मेरे प्यार पर यकीन है तो सब सच-सच बताओ की तुम क्या छुपा रही हो मुझसे?

निवेदिता- सच! कैसा सच राजकुमार? एक ऐसा सच जिसे बताने या न बताने का कोई फायदा नहीं है.

जीत- तुम ये सब मत बोलो. मैं जो तुमसे पूछ रहा हूँ वो बताओ मुझे.

निवेदिता- ठीक है बता दूँगी. लेकिन आज नहीं कल शाम को.

जीत- कल शाम को क्यों? आज ही क्यों नहीं?

निवेदिता- आज इस लिए नहीं क्योंकि मैं जानना चाहती हूँ की क्या तुम उस रहस्य को जानने के काबिल हो भी या नहीं? अगर कल तुम हमारे दरबार में आकर मुझे सबके सामने प्रेम पत्र देने में कामयाब हो गए तो निसंदेह मैं तुम्हे सारी बात बता दूंगी.

राजकुमार जब कुछ देर नहीं बोलता है तो राजकुमारी कहती है.

निवेदिता- क्या हुआ राजकुमार? प्यार का भूत उतर गया क्या? अगर नहीं कर सकते तो कह सकते हो. क्योंकि प्यार और आकर्षण में यही अंतर होता है.

राजकुमार चिंतित होकर- चुप करो. मैं कल दरबार में तुम्हे सबके सामने प्रेमपत्र देकर ही मानूंगा चाहे इसके लिए मुझे मेरी जान से भी हाथ क्यों न धोना पड़े। 

निवेदिता- ठीक है देखती हूँ. लेकिन अभी तुम यहाँ से निकलो वर्ना कोई न कोई पहरेदार आ जाएगा.

जीत ने राजकुमारी की आँखों में देखा और फिर वहां से जाते हुए बोला- कल मेरा इन्तजार करना निवेदिता। मैं भी तो देखूँ की महेंद्र पुर के दरबार में बैठने वाले लोग कितने बुद्धिमान हैं। अभी के लिए चलता हूँ। 


फिर शत्रुजीत वापस उसी रास्ते से होकर महल के बाहर आ जाता है। किसी भी पहरेदार की नजर उस पर नहीं पड़ती है। वह बड़ी ही कुशलता के साथ परकोटे के ऊपर से कूद जाता है। 


इधर बाहर शंख शत्रुजीत का इन्तजार कर रहा था वह थोड़ा चिंतित था। उसने क्रोधित होकर कहा- ये क्या है भैया? तुम तो कह रहे थे तुम शीघ्र ही वापस आ जाओगे। लेकिन तुमने तो पूरा एक पहर निकाल दिया। क्या सच में राजकुमारी निवेदिता से तुम्हारी मुलाकात हुई थी। 


जीत - अरे! रुको भई सारे सवाल एक ही साँस में पूछ लोगे क्या? कुछ तो आराम कर लो। खैर एक दुविधा है। 


शंख- क्या दुविधा है? वैसे भी वो राजकुमारी भी दुविधाओं की पौटली है। कहो क्या कहा उसने?


जीत ने फिर राजकुमारी की शर्त का उल्लेख शंख से कर दिया। शंख से राजकुमारी की शर्त को सुनते ही जीत से खीजते हुए कहा- तुम पागल हो गए हो क्या भैया? उस एक अनजान राजकुमारी के लिए तुम अपनी जान खतरे में डालोगे? 


जीत- शंख मेरे भाई. अब वो अंजान नहीं है। वो अब तुम्हारी होने वाली भाभी है। 


शंख- अच्छा! कही भैया इस भाभी के चक्कर में प्राणों की बलि न चढ़ जाए। मेरा कहना मांनो हम वापस राज्य चलते हैं हमें कोई और रहस्यमयी आँखों वाली राजकुमारी मिल जाएगी। 


जीत- शंख मेरे भाई तुम समझते क्यों नहीं हो? यार मैं उससे प्यार करता हूँ। उसके लिए मैं कुछ भी कर सकता हूँ। कृपया करके मुझे बताओ की उसे सबके सामने प्रेम पत्र कैसे दूं?


शंख- देखो भैया इस संबंध में मैं तुम्हारी कोई मदद नहीं कर सकता हूँ।


जीत- अच्छा! तुम्हे सोमदत्त (मीणा पुत्र) चाचा की विद्याओं का ज्ञान है शायद यही कारण हैं न भाई  तभी तो तुम मेरी  मदद नहीं करना चाहते। कोई बात नहीं। एक भाई ही जब दुसरे भाई के काम नहीं आएगा तो फिर कौन आएगा? 


शंख- देखो भैया अब ये बात मत बोलो।


जीत - तो फिर क्या बोलूं? अगर तुम सच में मेरे भाई हो तो फिर कोई योजना बताओ।


शंख- ठीक है सोचता हूँ।


शंख के इतना कहते ही जीत उछलकर शंख के गले मिलते हुए कहता है- शाबाश! ये हुई न बात। 


शंख- अरे! शांत हो जाओ भाई. रात भर सोचूंगा तब कुछ हो पाएगा। चलो अभी यहाँ से चलते हैं। 


जीत- जैसी तुम्हारी इच्छा चलो चलते हैं। 


फिर वे दोनों वापस घोड़े पर चढ़ते हैं और जंगल में किसी सुरक्षित स्थान पर ठहरते हैं। 


इधर महल में राजकुमारी को पीछे से उसके कक्ष में से कोई महिला आवाज देती है। 


महिला- शाबाश! बेटा तुमने तो अब अपना काम निकालने के लिए इस राजकुमार को बलि का बकरा बना ही लिया। 


निवेदिता ने अठ्ठाहसपूर्ण हंसी हँसते हुए कहा- हाँ! मौसी. बिलकुल। वैसे भी मेरी ये मुस्कराहट और हुस्न किसी काम तो आया न । 


निवेदिता की मौसी कुछ ही देर में उसके सामने आ जाती है। जो दिखने में करीबन पचास वर्ष की लग रही है। वे दोनों एक दुसरे की तरफ मुस्कुराती हैं। 


क्रमश

भाग-5

राजकुमार शत्रुजीत और मानिकेय पुत्र (शंखवर्मन) दोनों अपने घोड़ो को विश्राम के लिए छोड़ देते हैं और स्वयं एक बरगद के पेड़ पर विश्राम करने के लिए चढ़ जाते हैं। जब कुछ देर के लिए दोनों में बात नहीं होती है तो शत्रुजीत शंख वर्मन से कहता है- छोटे कोई उपाय सुझा? 

शंख- भैया ये राजमहल में प्रवेश करने की और निवेदिता को प्रेम पत्र देने की बात है। कोई भेड़ बकरियां नहीं चुरानी है जो आसानी से योजना बन जाएगी। 


जीत-जल्दी सोचो यार। तुम्हे तो यार मानिकेय और सोमदत्त चाचा दोनों की ही विद्याओं का ज्ञान है। कुछ तो करो यार। 


शंख मुस्कुराते हुए कहता है- अच्छा! 


जीत -हाँ! मैं तुम्हारी कोई झूठी तारीफ नहीं कर रहा हूँ। कृपया करके मेरे मनोस्थति को समझो। 


शंख- संमझ गया भैया मेरे पास एक उपाय है लेकिन है बहुत मुश्किल। 


जीत-क्या उपाय है शीघ्रता से कहो?


शंख- ठीक है बताता हूँ। लेकिन इसके लिए सबसे बड़ा काम तुम्हे ही करना होगा।


जीत- बोलो क्या करना होगा?


शंख- क्या तुम्हारे पास कोई ऐसा उपाय है जिससे तुम महल की किसी वस्तु को ला सको। 


जीत -हां है न क्या मुझे महल में जाना होगा?


शंख- नहीं भाई. ये अब कैसे संभव होगा?  अभी कुछ ही देर में भोर होने वाली है और अगर तुमने महल में प्रवेश किया तो फिर मारे जाओगे। कुछ ऐसा उपाय करो की तुम कोई वस्तु बिना महल में गए ही ले आओ। 


जीत - क्या? ये बात है। मैं वस्तु को ला सकता हूँ। लेकिन..


शंख- लेकिन क्या भैया? 


जीत- छोटे बात यह है कि मेरे पास एक ऐसा अस्त्र  है जो किसी भी वस्तु को पांच सौ मिल से लेकर आ सकता है लेकिन उसका वजन केवल 5 सेर ही होना चाहिए। इससे अधिक नहीं। क्योंकि वह अस्त्र इससे ज्यादा भार  वहन करने में सक्षम नहीं है। 


शंख ख़ुशी के मारे जोर से कहता है- अरे! वाह भैया। तब तो कमाल हो जाएगा। फिर तो योजना बन गई। 


जीत- शंख मुझे भी तो बताओ की मुझे क्या करना होगा? 


शंख ने शत्रुजीत की आँखों में देखते हुए कहा- अभी बताता हूँ. तुम्हे अब अपने अस्त्र की सहायता से राजकुमारी का कोई आभूषण उठवाकर लाना होगा जो उसने कल मेले में पहन रखा होगा। 


जीत-हाँ क्यों नहीं? आसानी से उठा लाएगा मेरे अस्त्र। मुझे पता है कल उसने एक स्वर्णाहार पहन रखा था। 


शंख- तो भैया देर किस बात की है अभी अपने अस्त्र का संधान करो और उस स्वर्णाहार को हमारे पास ले आओ। आगे की योजना बाद में बताता हूँ। 


जीत- ठीक है। 


फिर जीत और शंख दोनों पेड़ से नीचे उतर जाते हैं। जीत ने अस्त्र का संधान किया और राजकुमारी के कक्ष की ओर छोड़ दिया। अस्त्र शीघ्र ही राजकुमारी के स्वर्णाहार के साथ वापस आ गया। जीत और शंख दोनों स्वर्णाहार को आते देखकर बहुत खुश हुए । जीत ने स्वर्णाहार को अस्त्र के ऊपर से उतारा और शंख को देते हुए कहा- ये लो छोटे स्वर्णाहार। मैंने तो अपना काम कर दिया है अब बाकी का काम तुम करो। 


शंख ने  स्वर्णाहार को  हाथ में लिया और कुछ मन्त्र बोले कुछ ही देर में  वह चौंककर बोला- ये क्या भैया? 


जीत- क्या हुआ छोटे? 


शंख- भैया ये राजकुमारी निवेदिता मुझे कुछ ठीक नहीं लग रही है। 


जीत- क्या अनाप सनाप बोल रहे हो शंख?


शंख- भैया मैं बिलकुल सत्य बोल रहा हूँ। मेरी मानो राजकुमारी का ख्याल अपने दिल से निकाल दो। मुझे तो कुछ गलत लग रहा है।  ऐसा लग रहा है जैसे यह तुम्हारा इस्तेमाल कर रही है। 


जीत थोड़ा क्रोधित होकर कहता है- छोटे तुम्हे मेरी सहायता करनी है सलाह नहीं देनी। मैंने निर्णय ले लिया है। वैसे भी मैं उससे प्यार करता हूँ और मुझे विश्वास है कि वो मेरे साथ धोखा नहीं करेगी। अब बस सवाल यह रहा जाता है कि क्या तुम मेरी मदद करोगे या नहीं।


शंख- भैया ऐसे कोई बात नहीं है।


जीत- तो क्या बात है छोटे? इसका मतलब तो यही हुआ न की तुम मेरी मदद नहीं करना चाहते। अगर नहीं करना चाहते तो मत करो।


शंख ने दुखी होकर कहा- भैया ये क्या बोल रहे हो आप? अगर आपने निर्णय ले ही लिया है तो मैं कौन होता हूँ उस निर्णय को ठुकराने वाला। वैसे भी चाहे कुछ भी हो जाए मैं आपकी मदद करूँगा। 


जीत- तो फिर आगे की योजना क्यों नहीं बताता है फिर? 


शंख- ठीक है बताता हूँ। 


फिर शंख अपने घोड़े पर रखे सामान में से कुछ निकालता है। वह उसे हाथ में लेता है और फिर ध्यान मुद्रा में बैठ जाता है। फिर वह एक ताड़ के पत्ते पर कुछ लिखता है। उसके बाद वह राजकुमार के हाथ में उसे देते हुए कहता है- ये लो भैया। इस पत्र को तुम राजकुमारी को दे सकते हो और इस हार को भी अपने साथ ले जाओ। 


जीत उस ताड के पत्ते को हाथ में लेकर ध्यान से देखते हुए कहता है - शंख ये क्या है? तुमने इस पर क्या लिखा है? मुझे  तो ये भाषा बिलकुल संमझ नहीं आ रही है। ये कौनसी भाषा है?


शंख- यह अहीरवाटी ( सांघवाद प्रदेश ) की मुख्य लिपि है। 


जीत- अच्छा लेकिन इस प्रेम पत्र को राजकुमारी को देने का क्या मतलब है? उसे तो यह भाषा आती ही नहीं है। 


शंख- उसकी तुम चिंता मत करो। मैं तुम्हे जो योजना बताता हूँ तुम वैसे ही जाओ। 


जीत- ठीक है फिर बताओ जल्दी से। 


उसके बाद शंखवर्मन शत्रुजीत को पूरी योजना बता देता है। राजकुमार शत्रुजीत उस स्वर्णाहार और उस प्रेम पत्र को लेकर महेंद्र पुर के राजमहल की ओर  निकल पड़ता है। 


क्रमशः....

भाग-6

 शंख वर्मन ने पूरी योजना को विस्तार से शत्रुजीत को बता दिया था। शत्रुजीत स्वर्णाहार और उस पत्र को लेकर महेंद्र पुर के राजमहल की ओर निकल गया। 


इधर शंखवर्मन जीत के विषय में चिंतित था क्योंकि उसने उसकी एक नहीं सुनी थी। खैर अब उसे किसी भी तरह करके उसकी सहायता करनी थी। उसने कुछ जरुरी सलाहें और योजना को विस्तार से शत्रुजीत को बता दिया था ताकि राजमहल में उसे किसी भी तरह की दिक्कत न आए। 


जीत कुछ ही समय में राजमहल के मुख्य दरवाजे के सामने पहुँच गया। उसने दरवाजे पर खड़े एक द्वारपाल से कहा- द्वारपाल महोदय, क्या मैं राजकुमारी निवेदिता से मिल सकता हूँ? 


जीत की इस बात ने सभी द्वारपालों को हंसने को मजबूर कर दिया। एक द्वारपाल ने हँसते हुए दुसरे द्वारपाल से कहा- हा हा हा अरे! सुनो हरिप्रसाद चचा, इन जनाब को राजकुमारी  निवेदिता से मिलना है। समय रहते यहाँ से निकल जाओ। अगर निवेदिता के भाई महाराज हरेंद्रसिंह को पता चल गया तो वो तुम्हे बीच चौराहे पर लटका देंगे। चुप चाप वापस चले जाओ।


जीत - मैंने आपको कहा न मुझे उनसे मिलना है। आप मेरी बात समझते क्यों नहीं हो? 


द्वारपाल ने क्रोधित होकर कहा- काका यह कोई पागल है। मैं तुम्हे आगाह कर देता हूँ। समय रहते चुप चाप चले जाओ यहाँ से। 


जीत- मैं चला जाऊंगा लेकिन मुझे राजकुमारी से पहले मिलना है। 


अन्य द्वारपाल - अरे! कौन है ये मूर्ख? इसे पकड़ो और महाराज के सम्मुख प्रस्तुत करो। 


द्वारपाल के इतना कहते ही सभी रक्षकों ने शत्रुजीत को पकड़ लिया और उसे राजमहल के अंदर ले गए। शत्रुजीत ने एक छोटे से थैले में राजकुमारी निवेदिता का स्वर्णाहार और वो प्रेमपत्र रखा था। वह मुस्कुराता हुआ महल में जाता है। कुछ ही पल में वे दरबार में पहुँच जाते हैं। 


दरबार में राजकुमारी का सौतेला भाई हरेंद्र सिंह राज सिंघासन पर बैठा है और उसकी बगल में राजकुमारी निवेदिता बैठी हुई है। निवेदिता शतुजीत को इस अवस्था में देखकर चकित सी हो जाती है। कुछ मंत्रीगण और अन्य दरबारी दरबार की सौभा बढा रहे हैं। शत्रुजीत को राजा के सम्मुख प्रस्तुत करके द्वारपाल कहता है- महाराज की जय हो! महाराज यह धूर्त युवक कह रहा है कि इसे राजकुमारी निवेदिता से मिलना है। 


हरेंद्र सिंह क्रोधित होकर कहता है-  क्या! इसकी ये मजाल की यह हमारे होते हुए इस तरह की गुश्ताखी करे। इसे अभी फांसी देने की व्यवस्था करो। मेरी बहन के विषय में इसका ये विचार। 


हरेंद्र सिंह के फैसले से शत्रुजीत के चेहरे पर सिकन तक नहीं आती है। वे रक्षक उसे कैदखाने की ओर ले जाने लगते हैं तो पीछे से राजकुमारी निवेदिता बोल पड़ती है- ठहरो ! भैया पहले यह जान तो लो की यह कहना क्या चाहता है?


हरेंद्र सिंह- पर इसे क्या कहना होगा? इसके पास कहने के लिए है ही क्या? 


शत्रुजीत- बहुत कुछ है महाराज मेरे पास बोलने को। पहले आप आज्ञा तो दें।


हरेंद्र सिंह - ठीक है जो कहना है शीघ्र कहो। 


शत्रुजीत ने मुस्कुराकर स्वर्णाहार को अपने थैले से निकाला और सबको दिखाते हुए बोला- ये हार..


ये हार.. ये हार तो मेरा है। तुम्हारे पास कैसे आया? बोलो. 


शत्रुजीत कुछ बोलता उससे पहले ही निवेदिता ने क्रोधित होकर कहा। 


शांत हो जाओ राजकुमारी निवेदिता। यह हार मुझे कल मेले में  मिला था। आप तब मेले में अपनी सहेलियों के साथ थी और उसी वक्त यह हार नीचे गिर गया था। मैं आपको तभी देने वाला था लेकिन क्या करता आप उस वक्त निकल गईं थी? , " शत्रुजीत ने अपना पक्ष बड़ी ही सावधानी से रखा। 


निवेदिता को सब संमझ आ रहा था कि यह शत्रुजीत की चाल है।  लेकिन फिर भी उसने कुछ नहीं कहा। 

इधर राजकुमारी के भाई ने दरबार में सबके सामने कहा- नौजवान आपने  ईमानदारी का परिचय दिया है। हम तो आपको खामखा यूहीं बुरा संमझ लेते। खैर हम आपको उपहार स्वरूप कुछ देना चाहते हैं। बोलो क्या चाहिए तुम्हे?


शत्रुजीत का एक मन तो कर रहा था कि वह अभी राजकुमारी निवेदिता का हाथ मांग ले लेकिन ऐसी मूर्खता करने का प्रतिफल वह जानता था इस लिए उसने निवेदिता की तरफ़ मुस्कुराते हुए कहा- महाराज मैं चाहता हूँ की इस राजदरबार में बैठे आप सभी में से कोई एक मेरे इस ताड़ के पत्ते पर लिखे मेरे दोस्त का संदेश पढ़े। क्या है न महाराज मैं अनपढ़ हूँ और उसने मुझे क्या संदेश भेजा है इसका मुझे पता नहीं है इस लिए मैं आपसे निवेदन करना चाहता हूँ की कृपा करके आप मेरे इस पत्र को पढ़वाने में मेरी मदद करें।


हरेंद्र सिंह- हा! हा! हा! क्या बात है नौजवान। मैने तो सोचा था कि तुम कोई राजमहल में नौकरी या फिर ईनाम स्वरूप कुछ स्वर्ण मुद्राएं मांगोगे। लेकिन तुम्हारी मांग तो बहुत ही साधारण है। खैर हम आपकी मांग को स्वीकार करते हैं। 

फिर वह मुस्कुराता हुआ एक मंत्री की तरफ देखते हुए कहता है - अहि वर्मा! आप इस पत्र को पढ़कर इस नौजावान की दुविधा को अभी ख़त्म कर दो।


अहिवर्मा - जो आज्ञा  महाराज। 


फिर अहि वर्मा शत्रुजीत से कहता है - लाओ नौजवान मुझे दो ये पत्र। 


शत्रुजीत उसके कहे अनुसार उस पत्र को अहिवर्मा को दे देता है। अहिवर्मा उस पत्र का ध्यान से अवलोकन करता है लेकिन उसे उस पत्र की भाषा संमझ नहीं आती है। जब वह कुछ नहीं बोलता है तो हरेंद्र सिंह कहता है- क्या हुआ अहिवर्मा? आप भी इसे पढ़ने में असक्षम हैं? 


अहिवर्मा ने अपनी गर्दन को नीचे झुकाए हुए ही कहा- जी महाराज। यह भाषा मेरे संमझ से परे है। 


हरेंद्र सिंह- ठीक है, अहिवर्मा इस पत्र को हमारे शिक्षा मंत्री जी को दीजिए। वो शायद यह भाषा जानते हों? 


अहिवर्मा- जी महाराज। फिर वह उस पत्र को शिक्षा मंत्री को देता है। वो भी उसे पढ़ने में सक्षम नहीं हो पाता है। इस तरह से एक एक कर सभी उस  भाषा को  पढ़ने में असफल हो जाते हैं। आखिरकार हरेंद्र सिंह राजकुमारी निवेदिता को वो पत्र देते हुए कहता है- निवेदिता, तुम इस पत्र को पढ़कर बताओ। 


निवेदिता को मजबूरी में वो पत्र लेना पड़ता है। वह उसे देखती है तो उसे पता चल जाता है कि वह  अहीरवाटी  लिपि थी। उसने उसे देखा तो उसे शत्रुजीत की योजना का आभाष हो जाता है लेकिन वह इस संबंध में अपने भाई को कुछ नहीं बताती है। वह जोर से उस पत्र को पढ़ना शुरू करती है- मेरे प्रिय दोस्त, 

            तुम्हे क्या कहूँ?  तुम्हारी आँखों में उतने ही रहस्य हैं जितने रहस्य एक समंदर में। मैं जब से तुम्हे मिला हूँ सिर्फ तुम्हारे ही ख्याल आते हैं। मैंने तुम्हे सच्चा दोस्त मान लिया है लेकिन शायद तुमने मुझे अबतक अपना दोस्त स्वीकार नहीं किया है। अगर मुझे अपना दोस्त मानते हो तो आज रात को 12 बजे तुम मुझसे महेंद्र पुर की नदी नित्य वाहिनी के पास मिलना। मैं तुम्हारी आँखों के पीछे छीपे रहस्य को जानना चाहता हूँ। 

    तुम्हे ढेर सारा प्यार

       तुम्हारा दोस्त

          अजनबी 


राजकुमारी उस पत्र को पढ़ने के दौरान भावुक लगने लगी। उसने पत्र को पढ़ने के बाद वापस उस पत्र को अपने भाई को दे दिया। हरेंद्र सिंह ने पत्र को शत्रुजीत को सौंपते हुए पूछा-हा!हा! हा! नवयुवक तुम तो सच में बड़े विचित्र हो।  ऐसा कौनसा राज है नवयुवक तुम्हारी आँखों में जो वह जानना चाहता है? 


जीत- नहीं महाराज ऐसी कोई बात नहीं है मुझमे? लेकिन कुछ लोग ऐसे होते हैं जो बताना नहीं चाहते हैं। खैर महाराज मैंने तो अपना काम कर दिया है। मैं अब  अब चलता हूँ। वैसे भी आशा है आज मैं उससे मिलने में सफल होऊंगा। 


फिर वह राजकुमारी निवेदिता की ओर  इस तरह से देखता है मानो उसने अपनी बुद्धिमानी का परिचय दे  दिया हो। वह शीघ्र ही राजमहल से बाहर आ जाता है। निवेदिता के चेहरे पर उदासी छा जाती है। 


क्रमशः...

भाग-7 

राजकुमार शत्रुजीत और शंखवर्मन दोनों महेंद्र पुर की नदी नित्यवाहिनी के पास खड़े हैं। अभी रात्त का दूसरा प्रहर है। लेकिन राजकुंमारी निवेदिता अब तक उनके पास नहीं आई है । शत्रुजीत अपने आपको ठगा हुआ महसूस करता है। 


शंखवर्मन शतुजीत को समझाते हुए कहता है- भैया मैंने क्या कहा था तुमसे की राजकुमारी निवेदिता नहीं आने वाली है। वह तुम्हारी भावनाओ के साथ खेल रही है। 


जीत-नहीं छोटे मैंने कहा न मेरा दिल कभी झूठ नहीं बोल सकता। यह राज जान लेता है। जरूर राजकुमारी के इस व्यवहार के पीछे कोई कारण है। अगर ऐसा नहीं होता तो राजकुमारी  उस रात को मुझे कतई नहीं बचाती। कोई तो कारण हैं शंख? 


शंख- कोई भी कारण नहीं है भैया? वो तुम्हे उल्लू बना रही है। अगर कोई कारण होता तो वो आ नहीं जाती क्या? खैर मेरा कहा मानो। हम अभी हमारी राजधानी की ओर लौटते हैं। 


जीत - नहीं शंख हम हमारी राजधानी नहीं जाएंगे। 


शंख - भैया तुम पागल हो गए हो क्या जो.. 


सच कहा आपने ये पागल हो गए  हैं ? तभी तो मेरे पीछे पड़े हुए हैं, "शत्रुजीत और शंख दोनों जैसे ही पीछे की तरफ देखते है तो उन्हें पता चलता है कि उनके पीछे राजकुमारी निवेदिता थी। उसने एक बड़ा सा काला कम्बल ओढ़ रखा है। 

जीत क्रोधित होकर कहता है- ये क्या बात है? तुम इतने देर से क्यों आई हो? 


निवेदिता- तुम नहीं जानते जीत की  मैं कितनी मुश्किलों के बाद छिपते छुपाते आई हूँ? 


जीत- हां! अच्छी बात बोली। अगर मैं नहीं जानता तो शायद कोई नहीं जानता तुम्हे। खैर अब मुझे बताओ वो राज की बात क्या है? 


निवेदिता- कोई राज की बात नहीं है जीत। तुम खामखा फालतू में गलत धारणा बना रहे हो।


जीत- तुम अपना वादा नहीं तोड़ सकती निवेदिता। तुमने मुझे कहा था कि अगर मैं दरबार के सामने तुमहे पत्र दे पाने में सफल हो गया तो तुम मुझे सारी राज की बात बताओगी। लेकिन अगर अब बताने से मुकर रही हो तो फिर तुमसे बड़ा वादाखिलाफी इंसान नहीं हो सकता।


निवेदिता- जीत तुम समझते क्यों नहीं हो जीत मैं...


शंखवर्मन- अगर राजकुमारी निवेदिता कोई ऐसी राज की बात है जो हमें जानना चाहिए तो आप बताएं वरना भैया को गुमराह न करें।


निवेदिता- लेकिन..


जीत- लेकिन क्या निवेदिता? मैने तुम्हे दिल से चाहा है लेकिन अगर तुम बात नहीं बताओगी तो मुझे कैसे पता चलेगा कि बात क्या है? 


जीत के इतना कहते है निवेदिता दुखी हो जाती है। जीत और  शंख दोनों शांत हो जाते हैं। वे दोनों उत्सुक आँखों से निवेदिता की तरफ  देख रहे होते हैं। इधर रात का घना अँधेरा छाया हुआ है। नदी किनारे उल्लू के बोलने की आवाज सुनाई दे रही है। सब ओर घोर शांति है। निवेदिता एक शिलाखंड पर बैठ जाती है। 

इधर शंख और जीत भी एक शिलाखंड पर बैठ जाते हैं। निवेदिता दुखी होकर कहती है- .................



आज से 2  साल पहले महेंद्रपुर के राजा यानी मेरे पिताजी ओर हम सब बड़ी खुशी के साथ रहते थे। चारो और खुशहाली छाई हुई थी। प्रजा भी बहुत प्रसन्न थी। मेरे पिताजी बहुत ही उदार चरित्र के थे। लेकिन एक दिन...


इतना कहते-कहते निवेदिता रोने लगी। 


जीत ने उसे  सांत्वना देते हुए पूछा- रोने से क्या होगा निवेदिता? जो इस दुनिया में नहीं रहें उनके बारे में दुःख करने से क्या फायदा? 


निवेदिता- ऐसा मत बोलो। मेरे पिताजी, मेरी माँ और मेरा सौतेला भाई मरे नहीं हैं। 


शंखवर्मन- क्या मतलब निवेदिता? लेकिन हमने तो सुना है तुम्हारे पिताजी मर चुके हैं और तुम्हारा ये भाई कहाँ से आ गया? वो तो अभी राजा नहीं हैं क्या? 


निवेदिता- वो नहीं शंख । मेरा एक ओर सौतेला भाई है। मैं उनसे बहुत प्यार करती हूँ। लेकिन?


जीत- लेकिन क्या हुआ निवेदिता आगे भी तो बोलो? 


निवेदिता- एक रोज जब मैं सुबह उठी तो पता चला वे तीनों राजमहल में नहीं थे। सुबह का वक्त था। जब मैं अपने कक्ष से पिताजी के कक्ष गई। कक्ष में चारों और सामान बिखरा पड़ा हुआ था। मैं भोंचकीं हो गई। 


दो साल पहले.......


सुबह के ब्रह्म मुहूर्त का समय हैं। राजकुमारी निवेदिता हमेशा की भांति अपने पिताजी के कक्ष में जा रही है क्योंकि  उसे अपने पिताजी के साथ प्रातः कालीन भ्रमण पर जाने की  आदत है। वह जैसे ही कक्ष के अंदर प्रवेश करती तो अंदर का नजारा देखकर वो भोचन्की हो जाती है। चारो ओर कक्ष का सारा सामान बिखरा हुआ था। वह जोर से आवाज देती है। 

..पिताजी.. पिताजी.. कहाँ हो आप?


राजकुमारी की आँखों से आंसू बहने लगते हैं। वह इधर उधर देखती है फिर वह पुनः बोलती है- माँ .. पिताजी आप कहाँ हो? माँ .. पिताजी आप कहाँ हो? 


फिर वह दौड़ती हुई दुसरे कक्ष की तरफ जाती है जहाँ निवेदिता का सबसे छोटा सौतेला भाई रहता था। वह दौड़कर उसके कक्ष में प्रवेश करते हुए कहती है-  छोटे भैया? छोटे भैया आप कहाँ हो? वह जैसे ही उस कक्ष के अंदर जाते है तो उस कक्ष के अंदर का नजारा भी कुछ वैसा ही था। चारों ओर का सामान बिखरा हुआ था। उसके भाई के बिस्तर की रजाई पर उसका थोड़ा खून लगा हुआ था। वह कक्ष से दौड़ते हुए बाहर आती है और रोते हुए कहती है- कोई है? कोई है? 


उसके  रुंधे हुए गए की आवाज सुनकर मुख्य मंत्री उसकी तरफ कुछ सैनिको के साथ दौड़ता हुआ आता है और पूछता है- क्या बात है निवेदिता? आप युहं चिल्ला क्यों रही है? 


निवेदिता- मैं .. मैं .. 


राजकुमारी कुछ बोले उससे पहले ही एक पहरेदार दौड़ता हुआ अंदर आता है- मुख्य मंत्री जी की जय हो. राजकुमारी निवेदिता की जय हो।


गजब हो गया मंत्री जी। गजब हो गया। महाराज की जूतियां और रानी रूपमती की मौचड़ी बाहर पड़ी हुई हैं। पता नहीं क्या हो गया? कुछ गलत हुआ है मंत्री जी। इसके अतिरिक्त राजकुमार सुमेन्द्र सिंह जी का कुर्ता भी बाहर खून से सना हुआ मिला है। मुझे तो डर है कि कहीं कुछ गलत तो नहीं हो गया न?


मंत्री-  ये क्या बोल रहे हो तुम? अभी इसी क्षण सभी पहरेदारों को मेरे समक्ष दरबार में उपस्थित करो। 


पहरेदार - जी मंत्री जी। 


इतना कहकर वो दौड़ता हुए बाहर चला जाता है । इधर राजकुमारी निवेदिता बहुत उदास है। मुख्य मंत्री राजकुमारी को सांत्वना देते हुए कहता है-  राजकुमारी आप चिंता न करें। हम महाराज, महारानी और राजकुमार को ढूढ़ लेंगे। आप चिंता न करें। चलिए दरबार में जाकर पूछताछ करते हैं। 


इतना कहकर मुख्य मंत्री दरबार की ओर जाने लगता है। राजकुमारी निवेदिता भी उसका अनुसरण करती है। वे दरबार की ओर जा रहे  है..


भाग-8


दरबार में सेनापति व दरबारी बैठे हैं । मुख्य मंत्री भी अपने सिंघासन पर बैठा है। राजकुमारी बहुत उदास है। हजारो प्रश्न उसके दिमाग में हैं। जो पहरेदार रात को पहरा दे रहे थे वो सारे दरबार में उपस्थित हो जाते हैं। मुख्यमंत्री उनकी तरफ देखते हुए कहता है- कल आप में से कौन-कौन था जो महल के पीछे के दरवाजे की तरफ पहरा दे रहा था? 


मुख्यमंत्री के इतना कहने पर वो कुछ नहीं बोलते हैं। फिर मुख्यमंत्री दोबारा चिल्लाकर कहता है- सुनाई नहीं दिया क्या की मैने क्या पूछा है? मैं पूछ रहा हूँ की कल रात को राज महल के पीछे के दरवाजे की तरफ कौन पहरा दे रहा था? 


मुख्यमंत्री के क्रोधित होकर पूछने पर एक पहरेदार हाथ खड़ा करके कहता है- मंत्री मंहोदय, मुझे पता है कौन थे? 


राजकुमारी- तो शीघ्र बताओ की वो कौन थे?


पहरेदार थोड़ा संकोच करते हुए कहता है- राजकुमारी निवेदिता कल चार पहरेदार महल के पीछे पहरेदारी कर रहे थे।


मुख्यमंत्री- कौन-कौन थे वो?


पहरेदार - मंत्री महोदय, वे पहरेदार सुलतान सिंह, चंद्र बहादुर, नटवर सिंह और लांछन सिंह थे। 


मुख्यमंत्री- अभी जाओ और उन्हें बुलाकर लाओ।


दूसरा पहरेदार- कैसे मंत्री जी? आज सुबह से वो भी दिखाई नहीं दे रहें हैं। सेनापति जी ने उपसेनापति को उनके घर भेज था लेकिन उनका भी कहीं अता पता नहीं है।


मुख्यमंत्री- ये क्या बकवास है? 


इत्तना कहकर मुख्यमंत्री जैसे ही अपने सिंघासन से खड़ा होता है। अचानक दरबार में उपसेनापति आता है- राजकुमारी निवेदिता की जय हो। सेनापति शिव प्रताप की जय हो। मुख्यमंत्री मंहोदय की जय हो।


सेनापति - कहो उपसेनापति हरपाल सिंह जी क्या पता करके आए हो?


उपसेनापति- मंहोदय, मैंने आपके कहे अनुसार सारा जंगल छान मारा लेकिन नित्यवाहिनी नदी के बाद कही पर भी किसी का अता पता नहीं है। हमने महाराज के रथ को जंगल में क्षतिग्रस्त अवस्था में देखा है। महाराज के रथ के दोनों घोड़े भी जंगल में विचरण कर रहे थे। इसके अतिरिक्त रानी जी के कुछ आभूषण जरूर मिले हैं। राजकुमार जी का भी कोई अता पता नहीं है और न ही चारो पहरेदारों का कुछ पता चला पाया है।


उपसेनापति के इतना कहते ही राजकुमारी उदास हो जाती है। दरबार में घोर शांति छा जाती है। कुछ ही देर में सेनापति उपसेनापति से पूछता है- लेकिन कुछ तो सुराग मिला होगा आपको?


उपसेनापति- जी महोदय, सुराग मिला है लेकिन ऐसा की राज गहरा रहा है।


मुख्यमंत्री- राज! कैसा राज? 


उपसेनापति- मंहोदय राज की बात तो यह है कि हमने जब सभी के पदचिन्हों की जांच की तो पता चला है कि चारो पहरेदारों के अतिरिक्त किसी के पदचिन्ह दिखाई नहीं दे रहे हैं। 


सेनापति- ये क्या अजीब बात है?


उपसेनापति- जी यही तो अजीब बात है। मुझे तो सक है कि कही चारो पहरेदारों ने ही तो महाराज, महारानी और राजकुमार का अपहरण नहीं कर लिया हो!


मुख्यमंत्री- हो सकता है?  लेकिन ये सब हम अभी कैसे बोल सकते हैं? आखिर उन्हें महाराज का अपहरण करवाकर क्या लाभ मिलेगा?  उपसेनापति जी मैं आपको अभी आज्ञा देता हूँ की आप शीघ्र ही एक सैनिको की टुकड़ी के साथ महाराज, महारानी और राजकुमार का पता लगाने जंगल कज ओर प्रस्थान करें।


उपसेनापति- जी मंहोदय।


इतना कहकर उपसेनापति वहाँ से चला जाता है। सेनापति मुख्यमंत्री जी की तरफ सक की नजर से देखता है। राजकुमारी  निवेदिता उदास बैठी है। इधर सेना की एक टुकड़ी के साथ उपसेनापति जंगल की ओर प्रस्थान कर जाता है। 


क्रमशः......


भाग-9 

उपसेनापति के जाने के बाद दरबार में घोर शांति सी छा जाती है। सभी एक दुसरे की तरफ देखते हैं लेकिन सिवाय प्रश्नात्मक आँखों के कुछ नहीं मिलता है।  राजकुमारी निवेदिता के मन में घोर निराशा थी। कुछ ही देर में मंत्री जी ने घोषणा की - राजकुमारी आप अपने कक्ष में विश्राम करें। महाराज के बारे में जैसे ही हमें कोई सुराग मिलेगा। हम आपको अवगत करवा देंगे। 


निवेदिता - जी महामंत्री। 


इतना कहकर। राजकुमारी निवेदिता अपने कक्ष में चली जाती है। 





इधर निवेदिता की बात सुनकर शंखवर्मन और जीत उदास हो  जाते हैं। जीत पूछता है- फिर क्या हुआ निवेदिता? 


निवेदिता की आँखों से आंसू बह रहे हैं। वह बहुत उदास लग रही है। धीरे-धीरे रात गहराती जा रही है। चारो और घोर अँधेरा छाया हुआ है। जब निवेदिता कुछ नहीं बोलती है तो जीत पुनः अपने प्रश्न को दोहराता है- फिर क्या हुआ था निवेदिता?


निवेदिता- फिर..


शंख - हाँ! फिर..


निवेदिता- फिर अगले दस दिनों तक मेरे पिताजी, मेरी माँ और मेरे भाई का कोई सुराग नहीं मिला। ऐसा लग रहा था जैसे जंगल ही उन्हें निगल गया हो। सभी सैनिको ने उनकी चारों ओर तलाश की लेकिन वो नहीं मिले। मेरे दुसरे और बड़े सौतेले भाई को राज गद्दी का भार सौप दिया गया। उसके बाद उन्होंने भी बहुत तलाश की लेकिन कुछ हाथ नहीं लगा। आखिरकार 6 महीनो के अथक प्रयास के बाद भी कोई सुराग न मिलने के बाद भी जब कोई पता नहीं मिला तो उन्हें मृत घोषित कर दिया गया। 


जीत- ये कैसे हो सकता है? जिस जंगल के  रास्ते से उनका अपहरण किया गया क्या उसका कोई पता नहीं लगा?


निवेदिता- नहीं जीत। कोई पता नहीं चला। एक निश्चित जगह जाकर रास्ता रुंक सा जाता है। ऐसा प्रतीत होता है जैसे वे तीनों गायब ही हो गए हों। 


शंखवर्मन- लेकिन ये कैसे हो सकता है?


निवेदिता- ऐसा ही हुआ है। किसी को यकीन नहीं होता है कि भला ऐसा कैसे हो सकता है? लेकिन यही हुआ है। पीछले दो  सालो में उनका कोई सुराग नहीं मिला है। यह बहुत दुखदाई होता है। 


जीत निवेदिता की आँखों में प्यार भरी नजरों से देखता है। निवेदिया एक शिलाखंड पर बैठी हुई है। उसकी आँखों से आंसू बह रहे हैं। जीत का दिल कर रहा था कि वो उसे अपने सीने से लगाकर सांत्वना दें। लेकिन वो ऐसा नहीं कर सकता था। अभी निवेदिता उस स्थिति में नहीं थी। कुछ ही देर में शंखवर्मन ने जीत  से कहा- भैया एक काम करते हैं?


जीत- क्या?


शंखवर्मन- आप तो जानते ही हैं कि मुझे सोम मामा ने खोजी विद्या सिखाई थी और पिताजी ने मुझे शास्त्रों व मायावी विद्या  का ज्ञान दिया था। क्यों न हम पता लगाएं की निवेदिता के पिताजी, इनकी माँ और भाई को किस ओर ले जाया गया था। 


जीत- हाँ! मैं भी यही सोच रहा था। लेकिन यह काम बहुत मुश्किल है शंख। क्या तुम कर पाओगे?


निवेदिता ने भी जीत की बात में सहमति जताते हुए कहा- ये बिलकुल सही कह रहे हैं। हमें योजना अनुरूप कार्य करने की आवश्यकता है।


शंख- पर भैया आप मुझ पर विश्वास तो कीजिए।


जीत- छोटे यहाँ बात विश्वास की नहीं है। बात है अनुभवहीनता की। मुझे इन विद्याओं का इतना ज्ञान नहीं है और तुमने भी इन विद्याओं का कभी अच्छे से प्रयोग नहीं किया है। इस लिए मैं ज्यादा सोच रहा हूँ।


निवेदिता- हाँ! आप थोड़ा सोचें। क्या है न जल्दबाजी में कदम उठाना गलत हो सकता है।


शंख- पर? 


शंख जीत से अनुमति लेना चाहता था लेकिन जीत भी मामले की गंभीरता को देखते हुए निर्णय लेने में सोच रहा था।उसने शंख को प्यार से कहा- ठीक है शंख. लेकिन मुझे रात भर का समय चाहिए ये सब सोचने के लिए। अगले दिन जैसे ही मैं कुछ सोच पाया हम निश्चित ही आगे की योजना पर काम करेंगे।


शंख - जरूर भैया।


निवेदिता ने मुस्कुराते हुए कहा- हाँ! आपने ये बिलकुल सही कहा। तब तक मैं आपके लिए जो भी जरुरी सामान  चाहिए होगा वो महल से किसी के हाथ पहुंचा दूँगी।


जीत- ठीक है निवेदिता। अब थोड़ी देर में सुबह भी होने वाली है तुम जल्दी से निकालो यहाँ से।


हाँ! जीत। चलो चलती हूँ अलविदा।, फिर वह मुस्कुराते हुए जीत की तरफ प्यार भरी नजरों से देखती है। जीत भी उसकी तरफ प्यार से देखता है।  दोनों एक दुसरे की आँखों में कुछ पल के लिए खो से जाते हैं। इधर शंख उन दोनों के मध्य पनप रहे आकर्षण को अपनी आँखों से देख रहा था। निवेदिता वहां से निकल जाती है। शंख और जीत वापस उस पेड़ पर आकर लेट जाते हैं। 


क्रमशः.....

भाग-10

अगले दिन निवेदिता ने शत्रुजीत और शंखवर्मन के लिए रहने की व्यवस्था किसी किसान के घर में कर दी. वे दो दिनों तक छिपकर जानकारी निकालते रहे. इधर अधोमती राज्य के दरबार में महाराज वीरप्रताप इस मुद्दे को मणिकृतिका के सामने रखता है.

वीर- मन्नू! जीत और शंख महेंद्रपुर राज्य से अब तक लौटकर नही आए हैं. हालांकि मैं जानता हूँ की वह हमारा मित्र राज्य है लेकिन फिर भी अगर कुछ हो गया तो!

`` वे दोनों सकुशल हैं दोस्त और शीघ्र ही वे एक ऐसे कार्य को अंजाम देने वाले हैं जिसकी वजह से पूरी दुनिया में उनके शोर्य का डंका बजेगा``, मानिकेय ने मुस्कुराते हुए दरबार में प्रवेश करते हुए कहा.

वीर- दोस्त तुम ये बात इतने आत्मविश्वास से कैसे कह सकते हो?

मानिकेय- क्योंकि मैं अपनी ध्यान विद्या से उन पर लगातार नजर रख रहा हूँ और जिस आत्मविश्वास से वो अपने लक्ष्य की ओर बढ़ने का निर्णय कर चुके हैं उसे देखते हुए वे शीघ्र ही कुछ बड़ा करेंगे.

मणिकृतिका- अच्छा भैया, लेकीन अगर उन्हें कुछ हो गया तो!

मानिकेय- मन्नू! ये सब तो भाग्य पर निर्भर करता है. लेकिन अगर हम बच्चो के जोखिम लेने के डर से उन्हें अपने मन की न करने दे. ये क्या सही है? अब वे दोनों नौजवान हैं. उन्हें जीवन कैसे जीना चाहिए ये सब अब हम तय नहीं करेंगे बल्कि वो तय करेंगे. इस लिए उन्हें अब हम कोई आज्ञा नहीं देंगे.

मानिकेय का तर्क सुनकर दरबार में बैठा भागीरथ बोल पड़ता है- वाह! दोस्त विचार तो बहुत अच्छा है तुम्हारा. क्यों न अब हमें उन्हें उनके हिसाब से ही जीवन को जीने दें.

मणिकृतिका- लेकिन भैया ये उनका इस तरह का पहला ही तो अवसर है. वे किसी दूसरे राज्य में है और अगर कुछ हो गया तो.

मानिकेय- अच्छा! मन्नू. इसका मतलब तुम्हे जीत के शोर्य और शंख की बुद्दिमता पर सक है. तुम ये कैसे भूल गई की जीत की धनुर्विद्या के आगे दस हजार सैनिको वाली सेना भी कुछ पल की ही मेहमान होती है. उसके धनुष से निकलने वाले तीर की रफ़्तार प्रकाश की गति से भी तेज है तो भला उसकी सुरक्षा का सक काहे को. वह मायावी राक्षसों का भी अंत करने में सक्षम है तो वही शंख. शंख की बुद्दिमता के बारे में मैं तुम्हे क्या बताऊँ? उसे खोजी विद्याओं की जानकारी से लेकर ध्यान विद्या, पुनर्जीवितविद्या, छल विद्या, ठग विद्या और भी न जाने कितनी विद्याओं का उसे ज्ञान है. इस लिए उनके बारे में चिंता करने की हमे कोई जरुरत नहीं है.

वीरप्रताप- लेकिन दोस्त, भले ही उन्हें इतनी सारी विद्याओं का ज्ञान है लेकिन फिर भी अनुभव की भी तो कमी है.

मानिकेय- हा हा हा! अजीब सवाल पूछा है तुम्ने दोस्त, अनुभव क्या माँ की कोख में ही मिलता है? जब वो किसी विपरीत परिस्थिति का सामना करेंगे तभी तो उन्हें अनुभव मिलेगा वर्ना नहीं.

वीर- अच्छा, दोस्त अब तुम्हारी बातो के खिलाफ होने का साहस कौन करे? लेकिन फिर भी तुम लगातार उनपर नजर रखना.

मानिकेय- जरुर, मित्र.

इतना कहकर मानिकेय दरबार से बाहर चला जाता है. इधर मानिकेय के तर्कों से वीरप्रताप और मणिकृतिका दोनों को संतुष्टि होती है. वे दोनों फिर से राजदरबार के कार्यों में सलंग्न हो जाते हैं. अधोमती राज्य में किसी को भी अब जीत और शंख की बहादुरी और बुद्धिमता पर सक नहीं था.

इधर रात गहराती जा रही है. राजकुमारी निवेदिता, जीत और शंख महल के पीछे के दरवाजे की तरफ है. शंख ने हवन करके निवेदिता, जीत और स्वय के लिए एक ताबीज को बना लिया जिनसे उनका शरीर अदृश्य हो गया ताकि वे तीनो किसी को भी दिखाई न दें.

शंख ने खोजी विद्या के प्रयोग से राजकुमारी निवेदिता के पिता, भाई और माँ को उठाकर ले गए रथ के पहियो के निशानों का पीछा करना शुरू कर दिया. निवेदिता और जीत दोनों शंख के घोड़े का अपने घोड़ों से अनुसरण कर रहे थे. वे जैसे ही जंगल में पहुँच गए थे तो तीनों ने अपने-अपने ताबीज निकाल लिए थे। क्योंकि अब उन्हें किसी भी तरह का कोई खतरा नहीं था।  जंगल में अँधेरा बहुत था इसलिए शंख ने चन्द्रमा की रौशनी का रौशनीशोषित विद्या का प्रयोग करके प्रकाश कर दिया.ताकि उनके तीनो घोड़ो को मार्ग आसानी सी दिखाई दे दे. रात गहराती जा रही थी. जंगल में तरह-तरह के जीवो की भयानक आवाजे आ रही थी. वे कुछ ही दूर चले थे की अचानक रथ के पहियों के निशान गायब हो जाते हैं. शंख का घोडा हिनहिनाने लगता है. वह आश्चर्यचकित होकर कहता है- भैया ये क्या? मेरी खोजी विद्या अब आगे काम क्यों नहीं कर रही है?

``क्या हुआ छोटे?``, जीत इतना कहकर अपने घोड़े से निचे उतर जाता है. शंख और निवेदिता भी अपने अपने घोड़ो से निचे उतर जाते हैं.

शंख आश्चर्यचकित होकर कहता है- भैया मैं नहीं जानता की यहाँ ऐसी क्या बात है लेकिन यहाँ न जाने क्यों मेरी खोजी विद्या काम नहीं कर रही है?

निवेदिता- ऐसे कैसे हो सकता है? आपकी खोजी विद्या तो नदी के पानी में भी खोज (पदचिन्ह या पहियों) की पहचान करने में सक्षम है और भला यहाँ तो जंगल इतना घना भी नहीं है.

शंख- मैं नहीं जानता निवेदिता लेकिन यहाँ कुछ तो अदृश्य शक्ति है जो मेरी खोजी विद्या को भी निसफल कर रही है.

जीत- लेकिन छोटे इसका कोई तो तोड़ होगा तुम्हारे पास.

शंख- एक तोड़ है.

जीत- क्या? जल्दी बोलो.

शंख- मुझे इसके लिए आपकी मदद की आवश्यकता पड़ेगी.

जीत- बताओ क्या करूँ?

शंख- मुझे अभी तुलसी का एक पत्ता चाहिए और हम रात को तुलसी तोड़ नहीं सकते. इस लिए आपको अपने शस्त्र के प्रयोग से अभी किसी मंदिर में से तोड़ी हुई तुलसी का पत्ता लाना होगा. एक बार पत्ता आ गया तो मैं जरुर मेरी दूसरी विद्या का प्रयोग करके इस जगह के रहस्य का पता लगा पाने में सक्षम हो सकूंगा.

जीत- अरे क्यों नहीं? अभी करता हूँ.

इतना कहकर शंख अपने धनुष पर तीर का संधान करता है और महेन्द्रपुर के मुख्य मंदिर की तरफ छोड़ देता है. तीर वापस प्रकाश की गति से आ जाता है और उसकी नोक पर एक तुलसी का पत्ता था. शंख उसे उतारता है और मंत्रोचार के साथ अपनी विद्या का प्रयोग करता है.. वह कुछ मन्त्र बोलता है.

-ओह..... शंख जोर से डर के मारे चीख पड़ता है.

जीत आश्चर्य चकित होकर कहता है- क्या हुआ छोटे? डर क्यों गए?

``भ..भ.. भैया.. कुछ था.. भैया बहुत डरवाना. भैया वो बहुत भयंकर है.`` शंख कंपकपाती हुई आवाज में कहता है. निवेदिता भी डर के मारे कांपने लगती है.

जीत को गुस्सा आ जाता है वह क्रोधित होकर अपने धनुष की प्रत्यंचा को जोर से खींचता है तो आसमान में बिजलियाँ कड़कने लगती है. वह अपने धनुष पर तीर का संधान करते हुए कहता है- कौन है जिसने मेरे भाई को डराया? मैं कहता हूँ कौन है? सामने आओ वर्ना मैं इस पूरे जंगल को ही आग के हवाले कर दूंगा.

``हा! हा! हा! तू क्या करेगा नन्हे बालक. वापस चले जाओ वर्ना अच्छा नहीं होगा. तुम सब मारे जाओगे.`, जीत के सामने एक महाभयंकर राक्षस प्रकट होता है. जिसकी विशाल भुजाएं थी. लम्बे नाखूंग, सर पर दो विशाल सींग, लम्बे और डरावने दांत. एक ऐसा भयंकर और डरवाना रूप जिसे जो भी देखे डर के मारे ही मर जाए.

जीत क्रोधित होकर कहता है- तुम्ने मेरे भाई को चोट पहुंचाई है. मैं अब तुम्हे नहीं माफ़ नहीं करूँगा.

राक्षस- हा, हा, हा तुम और मुझे माफ़ नहीं करोगे. अरे! मुर्ख वापस चले जाओ मुझे इस रास्ते की रखवाली के लिए छोड़ा गया है. अगर समय रहते नहीं गए तो फिर मैं तुम्हे जान से मार दूंगा.

जीत का गुस्सा सातवें आसमान पर था वह क्रोधित होकर कहता है- तुम मुझे क्या अभयदान दोगे. जीत के धनुष पर जब एक बार कोई तीर चढ़ जाता है तो वह तुणीर में वापस नहीं जाता समझे. युद्ध के लिए तैयार हो जाओ वर्ना रास्ता छोड़ दो.

राक्षस- तुम्हारी मौत तुम्हे अब यहाँ तक ले आई है मुर्ख बालक. अब तुम्हारा आखिरी क्षण आ गया है. इतना कहकर वह राक्षस स्वयं एक मायावी अश्त्र को जीत की तरफ छोड़ता है. इधर जीत भी अपना तीर उस अश्त्र के काट में छोड़ता है. राक्षस का अश्त्र जीत के तीर पर भारी पड़ता है.

राक्षस उपहास करने के इरादे से कहता है- हा हा हा, क्या हुआ?

जीत क्रोधित होकर कहता है- युद्ध करो. युद्ध... सच्चे योधा युद्ध में अपने शोर्य का बखान करते हैं न की शेखी बखारते हैं. इतना कहकर जीत लगातार पांच से छ: तीरों को एक के बाद एक छोड़ता है. राक्षस एक दो के तोड़ में अपने अश्त्र चलता है लेकिन सभी का जवाब नहीं दे पाता है इस कारण एक तीर उसके सीने पर जोर से लगता है.

``आ.. आ... आ``, राक्षस दर्द के मारे कराह उठता है.

``हा! हा! हा! क्या हुआ? करो अब सामना.``, जीत हँसते हुए उस राक्षस का उपहास करता है.

वह राक्षस क्रोधित होकर एक गदा का संधान करते हुए उसे जीत की तरफ फैंकता है- या....

जीत उसके प्रतिउतर में एक दूसरे तीर का संधान करता है और वो तीर उस गदा को काटने में सक्षम होता है- फिर वह एक के बाद एक तीर को चलाता है राक्षस प्रत्येक तीर का जवाब बड़ी ही कुशलता से देता है. फिर वह सामने से एक दुसरे अश्त्र को छोड़ता है जो जीत के पाँव पर आकर लगता है. जीत दर्द के मारे कराह उठता है- आह...

``हा हा हा, अब करो मेरा सामना. या... फिर वह राक्षस जीत की तरफ एक अन्य गदा को फैंकता है. जो की जीत की छाती पर आकर लगती है. जीत दर्द के मारे कराह उठता है. –आह..

वह नीचे गिर जाता है उसका धनुष भी हाथ से छूट जाता है.

हा हा.. हा. क्या हुआ.. करो सामना.

जीत को गुस्सा आ जाता है. वह क्रोधित होकर अपना धनुष उठाता है और लगातार एक के बाद एक तीरों को छोड़ता जाता है. राक्षस कुछ का जावाब दे रहा होता है. जीत अपनी धनुष पर तीरों के संधान करने की रफ़्तार को बढ़ा लेता है. एक के बाद एक तीरों के आक्रमण से राक्षस सबका जवाब दे पाने में असक्षम हो जाता है जिससे एक तीर उसके एक सींग को ले उडता है. वह दर्द के मारे चीख पड़ता है..- आ.. आ..

हा हा हा हा क्या हुआ अब करो सामना.. अभी तो बहुत बोल रहे थे. ये लो.. इतना कहकर जीत पुन: लगातार पांच से छ: तीरों का संधान करता है. जिनमे से एक अन्य तीर उसके दुसरे सींग को भी ले उड़ता है. राक्षस दर्द के मारे फिर से कराह उठता है- आ..

जीत क्रोधित होकर कहता है- तुमने मेरे छोटे भाई के साथ गलत किया है. अब मैं तुम्हे नहीं छोडूंगा.

फिर वह एक तीर का संधान करता है जिससे उसकी एक भूजा कट जाती है फिर वह दुसरे तीर से उसकी दूसरी भूजा को भी काट देता है. राक्षस दर्द के मारे कराह रहा था. लेकिन जीत फिर से एक आखिरी तीर का संधान करता है और राक्षस को मार देता है. राक्षस कराहता हुआ जमीन पर गिर पड़ता है.

राक्षस के मारते ही तीनो के चेहरे पर सूकून की मुस्कराहट थी. राक्षस के मरते ही पूरा रास्ता खुल जाता है. वे जिस जगह खड़े थे वहां एक बड़ा सा गड्ढा बन जाता है. वे तीनो एक का उस गड्ढे में प्रवेश करते हैं. वे अपने-अपने घोड़ो को बाहर जंगल में ही छोड़ देते हैं. इधर वे कुछ ही दूर पढ़े थे की उन्हें एक विलाप करती हुई छोटी लड़की की आवाज सुनाई देती है.

क्रमश......

भाग-11

जीत  ने जैसे ही राक्षस की गर्दन काट दी तो पूरा रास्ता खुल गया। वह राक्षस दर्द के मारे चीखते हुए नीचे जमीन पर गिरा। एक बार कुछ ही देर के लिए जंगल शान्त हुआ था लेकिन उसके बाद अचानक उन तीनों को किसी छोटी लड़की के रोने की आवाज सुनाई दी। वे तीनों ही उसकी रोने की ध्वनि से आश्चर्य चकित हो जाते हैं। जीत ने चौंककर कहा- छोटे क्या मामला है? ये किसी छोटी लड़की की रोने की आवाज क्यों आ रही है? 

शंख- भैया मुझे तो कुछ गड़बड़ लग रही है। कहीं कोई मायावी राक्षस तो नहीं है। 


जीत- छोटे तुम्हे तो मायावी विद्या की पहचान करने के मंत्र आते हैं। क्यों न तुम ही इसका पता लगाओ? 


शंख- क्यों नहीं भैया? 


फिर शंख मंत्रोच्चार करता है। कुछ ही देर में वह कहता है- नहीं भैया यहाँ कोई मायावी विद्या का प्रयोग नहीं कर रहा है। हमे स्वयं उस जगह की पड़ताल करनी होगी।


जीत - ठीक है।


इतना कहकर जीत, शंख और निवेदिता उस रोने की आवाज की दिशा में आगे बढ़ते हैं। वे घने जंगल से होकर उस आवाज की दिशा में चौकन्ने होकर बढ़ते हैं। कुछ ही दूर में उन्हें एक फटे पुराने कपडे में एक छोटी  राक्षसी दिखाई देती है। जीत अपने धनुष पर बाण चढाने ही वाला था कि शंख रोक लेता है- ठहरो भैया. ये राक्षसी निहत्थी है। इस पर बाण चलाना कायरता की निशानी है।

जीत कुछ बोले उससे पूर्व ही वो लड़की बोलती है- मैंने अपने पिताजी की अभी चीखने की आवाज सुनी है। उनके साथ क्या हुआ है क्या आप बता सकते हैं?


जीत - मैंने  तुम्हारे पिताजी का वध कर दिया है। 


राक्षसी- क्या! हे!  महादेव ये क्या कर दिया आपने। 

फिर वह राक्षसी विलाप करने लग जाती है। उसकी आँखों से अश्रुधारा बहने लग जाती है। 


जीत ने सांत्वना देते हुए कहा- तुम्हारे पिताजी का वध करना मेरे लिए अनिवार्य था। वे हमारे कार्य के बीच में एक चट्टान की भांति आ गए थे। इस लिए मुझे उनका वध करना पड़ा। 


निवेदिता- लेकिन जीत तुम इसे क्यों सफाई दे रहे हो?  इसका भी वध कर डालो। वैसे भी सांप की बेटी सपोली ही होती है। इस लिए इसका भी फन यही कुचल दो।


जीत- नहीं निवेदिता यह अनुचित है। एक सच्चे योद्धा होने के नाते मैं किसी भी नाबालिग और नि:शस्त्र पर अपना अस्त्र नहीं चलाता हूँ। 


इधर वो छोटी राक्षसी  डर के मारे कांपने लगती है। 


शंख ने उसकी तरफ देखा तो उसकी दशा पर दुःख हुआ. वह अब अनाथ हो चुकी थी. उसने जीत से कहा- भैया! एक सच्चा योधा वही है जो अपने दुश्मन के बच्चो को भी अभयदान दे. आप एक श्रेष्ठ योधा हैं और शास्त्रों में भी यही कहा गया है की ``क्षमा वीरस्य भूषणं`` अर्थात क्षमा वीरो का आभूषण होती है. इस लिए इसे क्षमादान दे दो.

निवेदिता- नहीं जीत. इसे क्षमा मत करना. क्या पता यह फिर बदला लेने के लिए पुन: हमारे समक्ष आ जाए इस लिए इसे क्षमा करने का कोई औचित्य नहीं है. अभी अपने धनुष पर अस्त्र का संधान करो ओर इस राक्षसी को मार दो.

इतना कहते ही वह राक्षस पुत्री डर के मारे थर-थर कांपने लगती है. जीत ने अपने धनुष को उठाया. उस पर जैसे ही बाण का संधान किया शंख ने कहा- ये क्या कर रहे हो भैया? मेरी बात मानो इस मत मारो. भला इसने क्या किया है? इसके पिताजी के बुरे कर्मो का फल इसे क्यों दे रहे हो?

लेकिन जीत ने बिना कुछ बोलो अपने धनुष पर अस्त्र का संधान किया ओर छोड़ दिया. कुछ ही क्षण में वहां एक अग्निकुंड बन गया जिसमे से एक देवीस्वरूप स्त्री निकली. उसने सबको झुककर प्राणण करते हुए कहा- कहिए! राजकुमार जीत मैं आपकी क्या सेवा करूँ?

``हे! देवी मैंने इसके पिता को अपने कर्तव्य पालन हेतु मार दिया लेकिन इस बालिका ने कुछ भी गलत नहीं किया है. इस लिए मैं चाहता हूँ की जब तक ये बालिका बालिग नहीं हो जाती आप इसकी देखभाल करें.`` जीत ने मुस्कुराते हुए कहा.

स्त्री- जैसी आपकी आज्ञा राजकुमार.

निवेदिता- ये क्या किया जीत तुमने? तुमने इसे अभयदान क्यों दे दिया?

जीत ने मुस्कुराते हुए कहा- मैंने अपने पिता और अपने चाचाओं से यही संस्कार सीखे हैं निवेदिता. मैंने वाही किया है जो एक योधा के लिए उचित था.

इतना कहकर वह उस छोटी राक्षसी के पास जाता है और घुटनों के बल बैठकर कहता है- हे! राक्षस पुत्री मैंने आपके पिता को अपने कर्तव्य पालन हेतु मारा था लेकिन मेरी आपसे कोई निजी दुश्मनी नहीं है. ये देवी आपकी अच्छे से देखभाल करेंगी. आप इनके साथ सुरक्षित रहेंगी.

राक्षसी रोते हुए राजकुमार के कदमो में गिर जाती है. उसकी आँखों से आंसू बह रहे थे. राजकुमार ने उसे उठाया और कहा- अब आप इनके साथ जाए.

राक्षसी- मैं भोलेनाथ से कामना करुँगी की आप जिस कार्य के लिए निकलें हैं उसमे सफल हो. मुझे अभयदान देने लिए आपका शुर्क्रिया.

इतना कहकर वह राक्षसी यज्ञ से उत्पन्न हुई स्त्री के साथ चली जाती है. राजकुमार को ख़ुशी होती है. वह जैसे ही चली जाती है तो निवेदिता क्रोधित होकर कहती है- तुमने गलत कर दिया जीत. तुम्हे उसे मार देना चाहिए था.

जीत- नहीं निवेदिता. मैंने जो भी किया वो एक योधा का धर्म होता है. मैं कभी भी अपने फायदे के लिए अपने धर्म को नहीं छोड़ सकता. खैर शंख तुम अब आगे का रास्ता बताओ.

शंख- जी भैया,

इतना कहकर शंख आगे का रास्ता बताने के लिए तैयार हो जाता है. वह कुछ मन्त्र बोलता है और फिर वे आगे चलने लग जाते हैं. धीरे-धीरे वक्त बितता जाता है. अब जैसे ही सुबह होने का समय नजदीक होने लगता है. निवेदिता जीत से कहती है- जीत मुझे एक बात की चिंता हो रही है?

जीत- किस बात की निवेदिता?

निवेदिता- जीत जब महल में आज सुबह मैं भैया और सबको दिखाई नहीं दूँगी तो फिर भैया चिंतित हो जाएंगे. ऐसे मैं वो हमारे पीछे आएँगे और अगर हमें ढूढ़ लिया तो तुम्हे पकड़ लिया जाएगा.

शंख- उसकी तुम चिंता मत करो निवेदिता.

निवेदिता- कैसे?

शंख- जिस रास्ते से हम आए हैं उस जगह को मैंने मायावी बना दिया है और हमारे पदचिन्ह दिखाई नहीं देंगे क्योंकि मैंने अपनी मायावी विद्या से ही उन ताबीज को बनाया है जिन्हें पहनने के बाद किसी को भी हमारे बारे में कोई सुराग नहीं मिलेगा.

निवेदिता- अरे! वाह शंख. तुमने तो कमाल कर दिया.

जीत- आखिर भाई किसका है.

शंख- अरे! बस.. बस ये सब तो पिताजी से सीखा है मैंने.


वे जंगल में बाते करते हुए आगे बढ़ रहे थे की अचानक उनके सामने एक भव्य दृश्य दिखाई देता है. चारो ओर फूल ही फूल. ऐसा लग रहा था जैसे वो स्वर्ग में प्रवेश कर गए हों. फूलो से भंवरे पराग चूस रहे थे. मधुमक्खियों के छाते प्रत्येक दरख्त पर लटक रहे थे. फलों से पेड़ लदे पड़े थे. वे जैसे ही कुछ कदम आगे चले उन्हें एक भव्य तालाब दिखाई दिया. जिसमे सुन्दर स्वेत कमल खिले हुए थे. तालाब के स्वच्छ जल को देखकर वे तो हतप्रभ हो गए. जीत, निवेदिता और शंख तीनो ही अपना सबकुछ भूलकर बस उस नज़ारे को ही देखने में व्यस्त थे. अचानक निवेदिता की नजर एक स्वर्णमृग पर पड़ी. वह उनके बिलकुल पास में ही ही बिना डरे घास खा रहा था. कुछ ही पल में जीत ने एक मोर के जोड़े को देखा. मोर मोरनी के प्रति कामक्रीडा के अधीन होकर अत्यंत सुंदर नृत्य प्रस्तुत कर रहा था. जीत ने निवेदिता से कहा- देखो निवेदिता कितना सुन्दर और मनोरम दृश्य.

निवेदिता ने प्रेम से जीत की तरफ देखते हुए कहा- वाह कितना सुन्दर है.

वे दोनों उस मोर के जोड़े को देखने लगे तो इतने में शंख की नजर एक सफ़ेद हाथी के जोड़े पर पड़ी. वे दोनों बहुत सुंदर लग रहे थे. तालब किनारे वे दोनों रति क्रीडा में मग्न थे. इधर जीत और निवेदिता दोनों एक दुसरे की आँखों में देख रहे थे. उन दोनों की आँखों में भी अनुराग झलक रहा था. आखिर झलके भी क्यों न वे जंगल के ऐसे स्थान पर थे जहाँ का नजारा अपने आप भी अद्भुत था. शंख जीत और निवेदिता को अकेला छोड़कर कुछ आगे बढ़ा तो उसे कुछ सफेद हंसो के जोड़े दिखाई दिए उन्हें तालाब किनारे देखकर वो तो भाव विभोर हो गया.

क्रमश.......

प्रिय पाठको


एक जगह महादेव नाम का प्रयोग किया गया है। जो छोटी राक्षसी कहती है ।  इसका कारण है (महादेव को सभी पूजते हैं। इस लिए मैंने उनका नाम दिया है। शिव सबके आदरणीय व पूज्नीय हैं) 


धन्यवाद

आपका अपना

गुरु

 भाग-12

इधर जीत और निवेदिता दोनों एक दूसरे की आँखों में देख रहे हैं. चारो ओर का नजारा बहुत सुंदर है. लताएं पुष्पों से लदी हुई हैं. जीत और निवेदिता दोनों एक दूसरे में खोए हुए हैं.


दूसरी तरफ अधोमती राज्य में वीरप्रताप मानिकेय के कक्ष में सुबह-सुबह ही जीत और शंख के विषय में जानने के लिए जाता है. मानिकेय ध्यान मुद्रा में अपने कक्ष में बैठा हुआ है. वीरप्रताप मानिकेय से कहता है-

`` मानिकेय क्या जीत और शंख सुरक्षित हैं और ये भी बताओ की वो कौनसा बड़ा काम कर रहे हैं?``

मानिकेय- वे अभी तक तो सुरक्षित हैं वीर. लेकिन आगे का पता नहीं.

वीर- मतलब!

मानिकेय- मतलब, आगे अब उन्हें वो चुनौती मिलने जा रही है जिसके बारे में उन्होंने कभी सोचा तक नहीं होगा. सच तो यह है की वीर, वे जिस राह पर हैं अगर उस राह पर हम भी होते तो हमारे भी सफल होने की सम्भावना कम ही होती.

वे चर्चा कर रहे होते हैं की इतने में मीणा पुत्र सोम भी आ जाता है. वह मानिकेय से कहता है- तुम कहना क्या चाहते हो दोस्त?

मानिकेय- बस यही की भले ही राजकुमार जीत बहुत वीर है लेकिन आखिर वह है तो नौजवान ही न और दूसरी तरफ शंख को भी सचेत रहने की आवश्यकता है.

वीर- दोस्त सबसे पहले तो तुम मुझे बताओ वो है कहाँ और वो वहां किस कार्य के लिए गए हैं?

मानिकेय- दोस्त वो महेंद्र पुर के लापता महाराज और महारानी का पता लगाने महेंद्र पुर के जंगल के रास्ते से महेंद्रपुर की राजकुमारी निवेदिता के साथ गए हैं.

मीणा पुत्र- क्या! लेकिन महेंद्र पुर महाराज तो काफी मर नहीं गए थे क्या?

मानिकेय- नहीं सोम उसकी अब तक पुष्टि नहीं हुई है. इस लिए ये सब कहना अनुचित होगा की वो मर गए हैं.

वीर- तो अब आगे क्या हो रहा है?

मानिकेय- हमारे वीर राजकुमार जीत ने सम्भासूर नामक राक्षस को कुछ पलों में ही अपने प्राणघातक अस्त्रों के प्रयोग से मार डाला. लेकिन तुम्हे पता है दोस्त की मुझे उसकी किस बात पर गर्व हुआ!

वीर- उसके पास स्थित दिव्यास्त्र के भण्डार होने की वजह से ही न?

मानिकेय- नहीं मित्र. इस धरती पर एक से बढ़कर एक योधा हैं. यहाँ तक की हमारे जीत से भी ज्यादा शक्तिशाली योधा मिल जाएंगे. लेकिन जो बात जीत को अन्य योधाओं से अलग बनाती है वो है उसके संस्कार. उसने हमारी दी हुई शिक्षा और अपने गुरु से लिए गए ज्ञान का मान रखते हुए उसने सम्भासूर की पुत्र अत्रिका को नहीं मारा. उसने उसे अभयदान देकर ये सिद्ध कर दिया की आने वाले समय में उससे श्रेष्ठ गुणों वाला योधा कोई नहीं होगा.

मीणा पुत्र- वाह मित्र क्या बात है जीत ने तो मेरा भी दिल जीत लिया लेकिन तुम केवल जीत की ही तारीफ क्यों कर रहे हो? हमारे छोटे बेटे शंखू के क्या हाल हैं बताओ?

मानिकेय ने मुस्कुराते हुए कहा- मुझे तो आश्चर्य हो रहा है सोम की जो लड़का मासूम सा लग रहा था वह तुम्हारी तरह ही योजना बनाने में कुशल है. उसने तुम्हारी दी हुई सभी विद्याओं का अब तक शानदार तरीके से प्रयोग किया है इसके अतरिक्त उसने मेरे दिए हुए ज्ञान का भी भरपूर प्रयोग किया है अब तक. लेकिन अब उन दोनों के सामने विकट परिस्थिति आने वाली है.

वीर- मतलब दोस्त?

मानिकेय- मैं सिर्फ यही बता सकता हूँ की उनके सामने अब विकट परिस्थिति आने वाली है न की ये बताने में सफल हूँ की वो विकट परिस्थिति किस तरह की होगी.

इतना कहते ही सभी दोस्त थोड़े चिंतित हो जाते हैं.

इधर जंगल में निवेदिता और जीत एक दुसरे को देख रहे हैं. उनका आँखों ही आँखों में मधुर मिलन हो रहा है. शंख भी तालाब किनारे हंसो के जोड़े का प्यार से अवलोकन कर रहा है. वह बहुत प्रसन्न था. उसे अचानक एक बहुत ही सुंदर हंस का जोड़ा दिखाई दिया. वह उन्हें देखता ही रह गया. उसे वो जोडा इतना सुंदर लगा की उसने उसे दिखाने के लिए निवेदिता और जीत दोनों को जोर से आवाज दी.

शंख- भैया! आप दोनों इधर आईये न आपको कुछ दिखाता हूँ!

जीत- क्या दिखा रहे हो शंख?

शंख ने उत्सुकतापूर्वक कहा- आप आईये न. फिर बताऊंगा.

जीत ने अधूरे मन से दूर से ही आवाज लागाई- अच्छा ठीक है आते हैं.

इतना कहकर जीत और निवेदिता दोनों साथ-साथ उसकी तरफ बढ़ते हैं. वे दोनों जीत के पास तालाब किनारे आ जाते हैं. आते ही वे देखते हैं तो वहां बहुत सारे सफ़ेद हंस और सारस थे. तालाब में सैंकड़ो कमल के फूल खिले हुए थे. उनमे से कुछ सफ़ेद थे तो कुछ गुलाबी रंग के. इतना सुंदर और मनोरम तालाब उन्होंने पहले कभी नहीं देखा था. वे सभी उसे देखकर भावविभोर होकर रह गए. जीत ने हंस के जोड़ो की तरफ देखा तो वो देखता ही रह गया. कितना अद्भुत नजारा था. जीत, निवेदिता और शंख उन हंसो के जोड़ो को बड़े ही प्यार से देखने लगे. अचानक जीत का मन किया की वो तालाब में से एक कमल के फूल को तोड़कर उसे निवेदिता को दे दे. वह शंख से अपने धनुष बाण देते हुए कहता है- इन्हें पकड़ो शंख में एक कमल का फूल लेकर आता हूँ.

शंख- ठीक है भैया ले आओ. लेकिन ध्यान से जाना.

जीत ने धनुष बाण को शंख को दे दिया. वह प्यार से निवेदिता की ओर देख रहा था. वह धीमे-धीमे तालाब की ओर बढ़ता है. वो तालाब के किनारे जाता है. अपने घुटनों के बल बैठता है और जैसे ही नीचे बैठकर उस कमल के फूल को तोड़ने लगता है. अचानक ऊपर से दो अजगर गिरते हैं जो निवेदिता और शंख को अपने अन्दर जकड लेते हैं. उसके हाथ से धनुष बाण गिर जाते हैं. वो जोर से चीख पड़ता है- भैया...

जीत मुड़कर जैसे ही उसकी तरफ देखता है तो पीछे से एक दूसरे राक्षस ने अपना अस्त्र छोड़ा और जीत को भी बाँध लिया. निवेदिता जोर से चीखकर कहती है- जीत बचाओ.

इधर शंख भी बोलता है. लेकिन सब व्यर्थ हो जाता है. वो जंगल जो सुंदर लग रहा था सब सामान्य हो जाता है और चारो ओर राक्षस ही राक्षस हो जाते हैं. उनमे से एक राक्षस ने दूसरे अस्त्र का प्रयोग किया ओर शंख को मूर्छित कर दिया. वे राक्षस उन्हें पकडकर आगे ले जाने लगते हैं. जीत लड़ने के लिए झटपटाता है लेकिन उसके धनुष बाण उसके पास नहीं थे तो इधर शंख के ऊपर राक्षस के अस्त्र का असर हो जाता है जिस वजह से वो भी कुछ नहीं कर पाता है, निवेदिता भी अपने आप को असहाय पाती है.....

क्रमश..


भाग -13

जीत, निवेदिता और शंख तीनो को वे दैत्यराज के छोटे भाई `सुखिस` के पास ले जाते हैं. वह इतना निर्दयी था की दूर-दूर तक राज्यों में उसका आंतक था. उन्हें डर था तो सिर्फ अधोमती राज्य के राजा वीरप्रताप से. लेकिन दैत्य राज निशुम्भ का सबसे बड़ा लक्ष्य यही था की वह पृथिवी लोक पर अपना आधिपत्य स्थापित करे. उन्होंने इसकी शुरुआत की थी महेंद्र पुर के राजा को बंदी बनाकर. इससे पृथ्वी लोक के सबसे बड़े राज्यों में से एक महेंद्रपुर पर वे आधिपत्य करने में सफल हो रहे थे. उन राक्षसों ने उन तीनो को जेल में बंदी बना लिया. निवेदिता को अलग कक्ष में रख दिया गया तो वही जीत और शंख को एक ही कक्ष में रखा गया.

इधर मानिकेय जैसे ही अधोमती राज्य की सभा में जीत और शंख को दैत्यराज सुखिस के द्वारा बंदी बनाए जाने की खबर सुनाता है तो पूरी सभा में निराशा छा जाती है. मणिकृतिका, मीणा पुत्र सोम, मानिकेय, महाराज वीरप्रताप, नाग कन्या, लौहार पुत्र, जोहरी पुत्र, व खत्री पुत्र सभी सभा में निराश होकर बैठे हैं. महाराज वीरप्रताप मानिकेय से पूछते हैं- ये सब कैसे संभव हुआ मानिकेय? क्योंकि जहाँ तक मुझे पता है की जीत के दिव्यास्त्रो का जवाब हर किसी के पास आसानी से नहीं होता है.

मानिकेय ने गहरी साँस लेते हुए कहा- बिलकुल सही कहा तुमने दोस्त. लेकिन दैत्य राज के भाई का सीधा सामना नहीं हुआ था जीत से. उन्होंने जंगल को मायावी बनाकर सबसे पहले उन तीनो को मोहित कर लिया था. फिर मौका देखकर उन तीनो को बंदी बना लिया था.

मीणा पुत्र क्रोधित होकर कहता है- कमीने सभी कायर हैं. अपने आपको दुनिया के सबसे ताकतवर मानते हैं लेकिन सच तो यह है की इन दैत्यों से बड़ा कायर कोई नहीं होता. उन्हें अच्छे से पता था की जीत का सामना करना उनके बस की बात नहीं है.

भागीरथ- बिलकुल सही कहा दोस्त तुमने. अगर वो जीत और शंख का सामना कर ही पाते तो फिर क्या सीधे युद्ध की चुनौती नहीं दे देते लेकिन दैत्यों का तो काम ही छल से युद्ध करना है.

वीरप्रताप- शांत हो जाओ दोस्तों. उन्हें इस बात का पता है की पृथ्वी लोक पर अब उन्हें कोई सबक सीखा सकता है तो वो कोई ओर नहीं हमारा अधोमती राज्य ही है. उन्होंने हमारे बेटों को बंदी बनाया है. हम अब निश्चित ही इसका बदला लेंगे.

मानिकेय- वीर लेकिन ये सब इतना आसन नहीं है. ये सभी दैत्य अब पहले के जैसे कमजोर नहीं रहे हैं. उन्होने भी बहुत सी मायावी शक्तियों और दिव्यास्त्रो को शिव की अराधना करके प्राप्त कर लिया है. इस लिए अगर हमें उन्हें पराजित करके राजकुमार जीत. राजकुमारी निवेदिता और शंख को छुड़ाना है तो योजना अनुरूप ही काम करना होगा.

फिर वो मीणा पुत्र की तरफ देखकर कहता है.

मानिकेय- बताओ दोस्त अब हमें उन्हें हराकर उन्हें सकुशल वापस कैसे लाएं?

मीणा पुत्र- जरुर बताऊंगा लेकिन मैं इस योजना को कल तक बता पाउँगा क्योंकि मुझे तुमसे दैत्यराज के बारे में बहुत सी जानकारिया प्राप्त करनी है.

मानिकेय- ठीक है दोस्त. आओ अब तुम मेरे कक्ष में चलो.

मीणा पुत्र- ठीक है दोस्त,

फिर वह मानिकेय के साथ उसके कक्ष में जाता है. वे दोनों आपस में कई देर तक वार्तालाप करते हैं. उन्हें सुबह से शाम हो जाती है. मानिकेय ने मीणा पुत्र को सारी जानकारी बता दी. फिर मीणा पुत्र लगातार कई देर तक अपने कक्ष में मणिकृतिका के साथ वार्तालाप करता रहा.

इधर रात होने को है. जीत और शंख दोनों बंदी बनाए हुए पड़े हैं. दैत्यराज का छोटा भाई सुखिस उनके कारागाह में आता है. वह अट्टहासपूर्ण हँसते हुआ कहता है- हा हा हा ... तुम दोनों ने क्या सोच रखा था. क्या तुम हमारे ऊपर आक्रमण करके हमें हरा दोगे?

फिर वह बंदी बनाए हुए जीत के पास पहुँचता है और उससे कहता है- तुमने ही शम्भासूर का वध किया था न?

जीत ने क्रोधित होकर कहा- अगर मेरे हाथ नहीं बंधे होते और मेरा धनुष और मेरे बाण मेरे पास होते तो मैं तुम्हे सब बता देता की मैं क्या हूँ?

सुखिस- हा हा हा हा, तुम अभी दूध पीते बच्चे हो. तुम क्या मेरे साथ युद्ध करोगे!

जीत- मैं दूध पीता बच्चा हूँ या फिर तुम्हे असली जगह पहुंचा सकता हूँ इसका पता तो तब चलेगा न जब तुम मेरे साथ युद्ध करोगे. वर्ना छल से तो कोई भी जीत सकता है. अगर हिम्मत है तो मेरे हाथ खोलो और मुझे मेरे धनुष और बाण लौटा दो फिर तुम्हे तुम्हारी औकात दिखा दूंगा.

सुखिस- अरे! अरे! तुम क्या मेरा सामना करोगे? पहले देख अपने आपको. मैंने तुम्हारे जैसे न जाने कितनो को अपनी भुजबल से कुछ क्षणों में ही यमलोक का रास्ता दिखाया है.

उसकी बातो से शंख को भी गुस्सा आ जाता है. वह क्रोधित होकर कहता है- थू है तुम पर जो अपने आप को योधा कहते हो. अगर इतने ही शक्तिशाली हो तो फिर भैया के हाथ क्यों नहीं खोल रहे हो?

सुखिस को शंख के बीच में बोलने से गुस्सा आ जाता है. वह क्रोधित होकर उसके जोर से मारते हुए कहता है- तेरी तो.. चूहे जितना तो तू है नहीं और बाते शेर के जैसी.

शंख के जोर से चोट लगने की वजह से वह चुप हो जाता है. शंख के मारने से जीत को गुस्सा आ जाता है. वह क्रोधित होकर कहता है- हे! सुखिस एक बार तू मेरे हाथ खोल दे. फिर तुम्हे बता दूंगा की मैं क्या कर सकता हूँ.

सुखिस- हा हा हा,, तुम्हे तो अभी खोलता हूँ मैं.

इतना कहकर वो जीत को पीटने लगता है. इधर निवेदिता को भी दूसरे कक्ष में रखा गया है.


अधोमती राज्य में अगले दिन सूरज निकलते ही सभा का आयोजन होता है. सभी अपने-अपने यथावत स्थान पर हैं. वीर प्रताप मीणा पुत्र की तरफ देखते हुए कहता है- कहो सोम क्या योजना है?

मीणा पुत्र- दैत्यराज निशुम्भ के पास अनेक दिव्यास्त्र हैं. वह भी आपसे और जीत से आसानी से युद्ध कर सकता है. यहाँ तक की अगर मैं यह कहूं की वो आप दोनों से भी शक्तिशाली है तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी. इसके अतिरिक्त दैत्यराज का सबसे छोटा भाई सुखिस जिसने जीत और शंख को बंदी बनाया है वह भी दिव्यास्त्रो का ज्ञाता है. उसने भी आसपास के राज्यों में बहुत आंतक मचा रखा है. इसके अतिरिक्त दैत्यराज के दो मझले भाई हैं जिनमे से एक रजनासूर सबसे ज्यादा भयानक है. उसे दैत्यगुरु का आशीर्वाद प्राप्त है की वह किसी भी इन्सान या देवताओं के द्वारा नहीं मारा जा सकता. सीधे शब्दों में कहूं तो दोस्त हमारी दुश्मन सेना हमसे भी हजार गुना ज्यादा खतरनाक है. इस लिए सबसे पहले तो राजकुमारी निवेदिता के भाई को एक दूत के माध्यम से यह सन्देश भेजना होगा की वो हमारे साथ असुरो के खिलाफ युद्ध करने के लिए चले. उसके बाद हमें बड़ी ही सावधानी से दैत्यनगरी में प्रवेश करना होगा जो की सबसे मुश्किल काम है. खैर अगर वो भी हम कर पाए तो फिर आगे की योजना हम बनाते रहेंगे लेकिन सर्वप्रथम हमें उपसेनापति सुमुती के हाथो राज्य की सुरक्षा का भार सौंपना होगा. सूर्यप्रकाश भी यही रह जाएगा. वह हमारे अनुपस्थिति में भाभी माँ ( नाग कन्या) के साथ मिलकर राज्य का कार्यभार संभाल लेगा. उसके बाद हमें हमारी सेना का एक तिहाई हिस्सा अपने साथ ले जाना होगा क्योंकि सबसे पहले हमें जीत, शंख और निवेदिता को छुड़ाना होगा.

वीर- योजना तो अच्छी है लेकिन क्या हम मन्नू को राज्य का कार्यभार सौंपकर नहीं जा सकते?

मीणा पुत्र- नहीं दोस्त. हम मन्नू को यहाँ नहीं छोड़ सकते क्योंकि निशुम्भ के मझले भाई को भी वरदान प्राप्त है की वो सिर्फ एक औरत के हाथो ही मारा जा सकता है. ऐसी परिस्थिति में हम मन्नू को यहाँ नहीं छोड़ सकते.

मानिकेय- वीर सोम बिलकुल सही कह रहा है. अब हमें इसकी योजना पर अमल करना होगा. हमें समय रहते जीत, निवेदिता और शंख के पास पहुंचना होगा क्योंकि सुखिस उन्हें घोर यातना दे रहा है. वो बहुत निर्दयी है.

मानिकेय के इतना कहते ही वीर क्रोधित होकर कहता है- तुम चिंता मत करो दोस्त, अब हम अतिशीघ्र ही दुश्मन पर धावा बोलेंगे.

इतना कहकर वे फिर सेना को तैयार करने का आदेश मणिकृतिका को दे देते हैं. मणिकृतिका ने शीघ्र ही सेना को तैयार कर लिया.

क्रमश.......

भाग-14

मणिकृतिका ने पूरी सेना को शाम तक तैयार कर लिया क्योंकि अगले ही दिन उन्हें दैत्यराज के भाई सुखिस के ऊपर आक्रमण करने निकलना था. इधर दूत भी शाम तक अपना सन्देश निवेदिता के भाई को देकर आ जाता है. अगले दिन दोनों राज्यों की पूरी सेना साथ मिलकर कूच कर जाती हैं. मानिकेय, महाराज वीर प्रताप, मणिकृतिका, मीणा पुत्र सोम, लौहार पुत्र और खत्री पुत्र सब सेना के साथ निकलते हैं. इधर महेंद्रपुर से कार्यवाहक महाराज व निवेदिता का भाई भी महेंद्रपुर की सेना के साथ युद्ध के लिए निकल पड़ता है. दोनों सेनाओं के सैनिको को मिलाकर उनके पास एक लाख सैनिक थे. वे धीरे-धीरे सेना सहित दुर्गम रास्तो से होकर जा रहे थे. मीणा पुत्र की योजना अनुरूप वे आगे बढ़ रहे थे तो इधर मानिकेय सबको आगे के रास्ते के बारे में अपनी विद्या से बता रहा था. वे मीणा पुत्र की खोजी विद्या के आधार पर आगे बढ़ रहे थे. वे जैसे ही सुखिस के जंगल में स्थित रहवास के नजदीक पहुंचे उन्हें कुछ राक्षसों के साथ सुखिस का भतीजा मिल जाता है वह परम पराक्रमी था. उसने दूर से ही समूची सेना को ललकारते हुए कहा- ठहरो! आगे बढ़ने से पहले आखिरी बार अपने इष्ट का ध्यान कर लो क्योंकि अब आप सब मृत्यु को प्राप्त होने वाले हो..

सुखिस के भतीजे के ऐसे बोलते ही वीरप्रताप को गुस्सा आ जाता है. वह क्रोधित होकर कहता है- वाह! मैंने तो सुना है की जिन्हें पराक्रम दिखाना होता है वो ज्यादा नहीं बोलते हैं. चल तू तैयार हो जा.

इतना कहकर वीरप्रताप ने एक दिव्यास्त्र का संधान किया ओर सुखिस के भतीजे निकुम्भ की तरफ चला देता हैं. सामने से निकुम्भ भी प्रतिउतर में एक दिव्यास्त्र चलाता है. निकुम्भ ने वीर के दिव्यास्त्र को दो भाग में काट दिया. वह जोर से उपहास करते हुए कहता है—हा हा हा, मैंने तो सुना था की अधोमती राज्य के राजा वीर प्रताप बहुत पराक्रमी हैं. लेकिन.... हा हा हा हा,....

वीर- संभलो... कहीं तेरी मुंडी अभी धड से अलग न हो जाए....

इतना कहकर वीर दूसरा दिव्यास्त्र चलाता है. लेकिन निकुम्भ उसका भी जावाब दे देता है और वीर के दिव्यास्त्र को दो भागो में काट देता है.

निकुम्भ- हा हा हा हा, क्या हुआ महाराज वीरप्रताप आप तो महापराक्रमी हैं. फिर वह पास के अन्य राक्षसों से कहता है- आप सब क्या देख रहो हो. आक्रमण करो....

इधर महाराज वीरप्रताप को गुस्सा आ जाता है. वे क्रोधित होकर एक राक्षस जो की उनकी सेना की ओर हथियार लेकर बढ़ता है तो वो दिव्यास्त्र का संधान उसे मारने के लिए करते हैं और उसकी तरफ दिव्यास्त्र छोड़ देते हैं जिससे वह राक्षस एक ही वार में मर जाता है.

निकुम्भ उसके मरने से क्रोधित होकर कहता है- नहीं!.... अब तो तुम गए..

फिर वह एक दिव्यास्त्र का संधान करता है. जो की वीरप्रताप की तरफ छोड़ता है. वीर प्रताप उसके दिव्यास्त्र की तोड़ में दूसरा दिव्यास्त्र छोड़ता है. जिससे उसका दिव्यास्त्र विफल हो जाता है.

वीर हँसते हुए कहता है- हा हा हा, क्या हुआ? चल अब इसका जवाब दे..

इतना कहकर वे लगातार बाण पर बाण चलाते हैं. जिनमे से एक बाण उसकी छाती में घूस जाता है. वह दर्द के मारे कराह उठता है- आह!...

निकुम्भ के लगते ही उसके पास खड़े उसके दूसरे एक भाई को गुस्सा आता है. वह अपनी गदा लेकर जैसे ही वीर प्रताप की ओर बढ़ता है लौहार पुत्र एक गदा उठाता है और उसके जोर के मारता है.

लौहार पुत्र- या.... ये लो...

वह हवा में उछलकर निचे गिरता है और एक ही वार में मर जाता है. लौहार पुत्र अठ्ठाहस पूर्ण हँसता है.- हा हा हा!, ओर कोई है..

उसके इतना कहते ही पास खड़े दूसरे राक्षस को गुस्सा आता है. वह क्रोधित होकर दिव्यास्त्र का संधान करता है. इधर दूसरी और निकुम्भ अपने रथ से पुन: खड़ा होता है.

निकुम्भ जैसे ही दिव्यास्त्र का संधान करके छोड़ने लगता है उससे पहले ही वीरप्रताप लगातार दो तीर छोड़ता है जो बिजली की गति से निकुम्भ के पैर पर लगते हैं और वो फिर से दर्द के मारे कराहते हुए गिर पड़ता है-

इधर दूसरी तरफ वो राक्षस जैसे ही लौहार पुत्र पर अपने अस्त्र का प्रहार करने लगता है तो मणिकृतिका उसकी एक ही तीर से मुंडी धड से अलग कर देती है. फिर वह दुसरे राक्षस को भी मार देती है. उसके जोश को देखकर निवेदिता का भाई भी अपने दिव्यास्त्रो के प्रयोग से एक राक्षस को मार देता है. निकुम्भ उन सब को मरता हुआ देखकर डर जाता है. वह कांपते हुए हाथो से अपना धनुष को जैसे ही उठाने लगता है. वीरप्रताप क्रोधित होकर एक दिव्यास्त्र चलता है जिससे उसका सर धड से लग हो जाता है. वह जोर से चीखते हुए जमीन पर गिर जाता है..

मीणा पुत्र वीर को शाबाशी देते हुए कहता है- वाह! वीर कमाल कर दिया तुमने तो. अब दोस्त हमें जल्द ही निवेदिता, जीत और शंख को सुखिस के चंगुल से बचाना होगा.

वीरप्रताप- बिलकुल दोस्त.. 


इतना कहकर वे जैसे ही आगे की ओर बढ़ने लगते हैं 


अचानक आसपास में धुआं ही धुंआ हो जाता है. सेना के सभी जवान खांसते हुए एक-एक करके जमीन पर गिरने लगते हैं. उनके नाक और मुहं से खून बहने लगता है. वीर के आगे आसपास के सैनिक मरने लगते हैं- वीर चिल्लाते हुए कहता है- अरे! अरे ये क्या हो रहा है. हमें कुछ दिखाई क्यों नहीं दे रहा है?

मणिकृतिका- मुझे भी दिखाई नहीं दे रहा है..

निवेदिता का भाई भी खांसते हुए कहता है- ये क्या हो रहा है? मुझे भी कुछ नहीं दिख रहा है. मेरी सांस रुक रही है. मेरा गला सूखा जा रहा है. वह पुन: खांसता है ..उह. उहूं...


मीणा पुत्र भी खांसते हुए कहता है- कुछ करो वीर.. ये क्या हो रहा है.


वीर प्रताप भी खांसते हुए कहता है.. उहूं...उहूं.. दोस्त मुझे भी कुछ समझ नहीं आ रहा है..

धीरे-धीरे सेना के सभी जवान एक-एक करके ख़त्म होने लगते हैं. पूरा जंगल रहस्यमयी ढंग से धुए में तब्दील हो रहा था.

क्रमश.........

 भाग-15

जंगल में चारो ओर धुआं था. सभी जवान एक-एक करके नीचे जमीन पर गिर रहे थे. उनके नाक और मुहं से खून बह रहा था. कुछ तो मर भी गए थे. मीणा पुत्र ने जोर से चिल्लाते हुए कहा- ये क्या हो रहा है? मुझे भी स्वांस लेने में दिक्कत हो रही है.

वीर प्रताप- दोस्त मानिकेय ये क्या हो रहा है? कृपया कुछ बताओ.

वीरप्रताप के ऐसा कहते ही सभी दोस्त खांसते हुए मानिकेय की तरफ देखने लग जाते हैं. मानिकेय अपनी आँखे बंद करके कहता है- बताता हूँ दोस्त.

फिर वह अपनी आँखे बंद करता है और कुछ मन्त्र बोलता है. फिर वह आश्चर्यचकित होकर जोर से बोलता है- ओह! हे! मित्र यह जो धुआं दिखाई दे रहा है इसके पीछे जो वजह है वो कोई ओर नहीं ध्रूमासूर है. वह गुफा में बैठा हुआ ही मंत्रोचार के साथ इस वातावरण को जहरीला बना रहा है. तुम दोस्त अभी एक काम करो. अरुणास्त्र का प्रयोग करो. फिर वातावरन शुद्ध हो जाएगा ओर वो गुफा से बाहर आकर युद्ध करने के लिए मजबूर हो जाएगा.

मानिकेय के इतना कहते ही वीरप्रताप अपने धनुष पर अरुनास्त्र का संधान करता है और फिर उसे आकाश की तरफ छोड़ देता है. अचानक आकाश में भयानक गर्जना होती है और जोर की बारिश होती है जिससे जो धुआं चारो ओर फैला हुआ था वो नीचे बैठ जाता है और वातावरण शुद्ध हो जाता है.

इधर जैसे ही ध्रूमासूर का वार खाली जाता है तो वो क्रोधित होकर गुफा से बाहर आ जाता है. वह दूर से ही वीरप्रताप को ललकारते हुए कहता है- युद्ध के लिए तैयार हो जाओ....

वीरप्रताप भी क्रोधित होकर कहता है- मैं तो कब का तैयार था ध्रूमासूर.

फिर वीर प्रताप एक अस्त्र का अपने धनुष पर संधान करते हुए जोर से कहता है- जवाब दो इसका ध्रूमासूर...

राजकुमार का छोड़ा हुआ अस्त्र ध्रूमासूर की जंघा पर जाकर लगता है. वह जोर से चीखता है.

ध्रूमासूर- आह...

वीरप्रताप- हा हा हा हा...क्या हुआ ध्रूमासूर.. तुम असुरो को छल से ही युद्ध करना आता है न की अपनी शक्ति से लो इसका भी जवाब दो..

फिर वीरप्रताप एक अन्य अस्त्र का संधान करता है. लेकिन इससे पहले की वह अस्त्र का संधान कर पता ध्रूमासूर ने झट से अपना दिव्यास्त्र छोड़ दिया और वो वीर प्रताप की छाती पर लगता है.

वीर प्रताप- आह...

ध्रूमासूर- हा हा हा हा, क्या हुआ? पहले तो बेटे को हमने बंदी बना लिया अब क्या बाप भी बेटे की तरह ही कमजोर है!

ध्रूमासूर के कटाक्ष करते ही वीरप्रताप को गुस्सा आ जाता है वह क्रोधित होकर कहता है- ध्रूमासूर... संभलो..

फिर वीरप्रताप एक के बाद एक लगातार बाण छोड़ता है. जिनमे से एक ध्रूमासूर के टखने पर लगता है तो एक उसका बाजु पर लगता है तो वही एक उसके हाथ की गदा को पर लगता है जिससे उसकी गदा नीचे गिर जाती है.

ध्रूमासूर- हम्म..हैं.. हैं... आह....

वह चोट लगने की वजह से गुस्से में आग बबूला हो जाता है. फिर वह गदा को जमीन से उठाता है और वीरप्रताप की तरफ उस गदा को फैंक देता है. वीरप्रताप उसके तोड़ में अपने अस्त्र का संधान करे उससे पूर्व ही वो गदा उसकी तरफ आ जाती है वह नीचे बैठकर जैसे तैसे अपने आप को बचाता है. लेकिन वो गदा वीरप्रताप के पीछे रथ पर खड़े महेंद्र पुर राज्य के सेनापति के रथ के घोड़े के सर पर लगती है और वो घोडा हिनहिनाता हुआ वही मर जाता है और सेनापति रथ से सारथि सहित उछलकर चीखता हुआ नीचे गिर जाता है..

सेनापती- आ.. आ.. आई.....

ध्रूमासूर क्रोधित होकर दुसरे अस्त्र का संधान करता है ओर वीरप्रताप की ओर छोड़ देता है. वीरप्रताप के पास उस अस्त्र का भी तोड़ नहीं था वह चौंककर फिर से नीचे बैठ जाता है जिससे वो अस्त्र सेना के जवानो के मध्य जाकर गिरता है और बीस से तीस सैनिक उछलकर नीचे चीखते हुए गिरते हैं.

सभी सैनिक- आ.. आ..आई...

वे सभी हवा में दूर तक उछलकर नीचे जमीन पर गिरते हैं और मर जाते हैं.

ध्रूमासूर- हा हा हा, अपनी सेना को बचाओ.. वीरप्रताप. मैं भी तो देखूं की तुझमे कितनी शक्तिया हैं.. हा हा हा..

उसके बाद ध्रूमासूर हँसते हुए एक अन्य अस्त्र का संधान करता है जिसके तोड़ में वीरप्रताप एक अस्त्र को छोड़ता है. लेकिन वीरप्रताप का अस्त्र उसका सामना नहीं कर पाता है और वो दो भागो में टूट जाता है. ध्रूमासूर अट्ठाहस पूर्ण हँसते हुए वीरप्रताप का उपहास करते हुए कहता है- हा हा हा, क्या हुआ मैंने तो सुना था की अधोमती राज्य का राजा बहुत पराक्रमी है. लेकिन क्या इसे ही पराक्रम कहते है!

वीरप्रताप को उसके द्वारा उसकी बहादुरी का मजाक बनाया जाना भाता नहीं है. वीरप्रताप क्रोधित होकर जोर से चील्लाते हुए कहता है- ध्रूमासूर... तैयार हो जाओ..

फिर वीर प्रताप एक अन्य अस्त्र का संधान करता है लेकिन ध्रूमासूर उसको भी खत्म कर देता है..

ध्रूमासूर- हा हा हा... ये लो वीरप्रताप.. इसका सामना करो..

वीरप्रताप के पास उसके अस्त्र के तोड़ का अस्त्र नहीं था जिस कारण वो अस्त्र वीरप्रताप के सारथि के लगता है और वो दूर उछलकर गिरता है और मर जाता है.. वीरप्रताप क्रोधित होकर कहता है- ध्रूमासूर...

फिर वो जैसे ही नए अस्त्र का संधान करने लगता है तो मानिकेय कहता है- ठहरो दोस्त. तुम तुम्हारे इन अस्त्रों से इसका सामना नहीं कर सकते हो. बस कुछ देर के लिए ही रोक सकते हो. अगर इसका वध करना है तो एक काम करो..

वीरप्रताप- क्या!

मानिकेय- बताता हूँ..

इधर मानिकेय और वीरप्रताप दोनों बातें कर रहे थे और उधर ध्रूमासूर उनकी सेना को खत्म कर रहा था.

वीरप्रताप को मानिकेय कहता है- दोस्त यह पूर्ण रूप से दूषित है. अगर तुम्हे इसका वध करना है तो इस पर आग्नेय अस्त्र का प्रयोग करना होगा क्योंकि अग्नि में हर चीज को पवित्र करने की क्षमता है. इसका वध तभी संभव है.

वीरप्रताप- ठीक है दोस्त मैं अभी उस अस्त्र का संधान करता हूँ.

और फिर फिर प्रताप ने आग्नेय अस्त्र का संधान किया और ध्रूमासूर की तरफ छोड़ दिया. वो अस्त्र ध्रूमासूर के सभी अस्त्रों को विफल करते हुए सीधे ध्रूमासूर के वक्षस्थल पर लगता है और वह चीखने लगता है- आह.. आ.. आ ... आई... उसका शरीर धधकने लगता है.

और कुछ ही पल में वह जोर से नीचे धरती पर गिरता है और उसका अंत हो जाता है.

उसका अंत होते ही मानिकेय अपने मंत्रो के प्रयोग से सभी मृत सैनिको,सारथि और उस घोड़े को वापस जिन्दा कर देता है. जैसे ही चारो ओर शांति छा जाती है तो मीणा पुत्र कहता है- अब हमें आगे की ओर बढ़ना है लेकिन ध्यान रहे मायावी राक्षस कहीं से भी आ सकते हैं. अत: हमला करो तो सभी एक साथ करना..

क्रमश...........


भाग-16

महाराज वीरप्रताप के कहने पर और मणिकृतिका के नेतृत्व में सभी सैनिक एक के बाद एक सभी राक्षसों का वध करते जाते हैं.  वे शीघ्र ही सुखिस के महल के  आगे पहुँच जाते हैं.

इधर सुखिस को जैसे ही पता चलता है की राजकुमार के पिता वीरप्रताप ने अधोमती राज्य की सेना सहित उन पर हमला कर दिया है और उनके भतीजे कुम्भासूर का वध कर दिया है तो वो क्रोधित होकर कुछ राक्षसों सहित मायावी रूप धारण करके सबके सामने आ जाता है. लेकिन वे राक्षस किसी को दिखाई नहीं देते हैं. सुखिस छल कपट से वीरप्रताप पर एक अस्त्र मारता है और वीरप्रताप वही मूर्छित होकर गिर जाता है. फिर वह सभी राक्षसों सहित सबके सामने आकर उपहास करते हुए कहता है- 

``हा हा हा हा, यही था क्या तुम्हारा राजा.. बस एक ही वार में ख़त्म. हा हा हा" 

``सुखिस! तुझे तो मैं नहीं छोडूंगी.` मणिकृतिका क्रोधित होकर सुखिस से कहती है.

फिर वह एक अस्त्र का संधान करती है और सुखिस की ओर छोडती है लेकिन सुखिस बड़ा रूप धारण कर लेता है और उस अस्त्र को अपने मुहं में ही निगल जाता है.

`` हा हा हा हा, क्या बात है आपकी सेना में मर्द नहीं रहे क्या जो मुझे इस अबला नारी से युद्ध लड़ना पड़ रहा है.`, सुखिस मणिकृतिका का उपहास उड़ाते हुए कहता है.

मणिकृतिका क्रोधित होकर कहती है- सुखिस! तेरी मौत अब तुम्हे मेरे सामने लेकर आई है.

वह एक अन्य अस्त्र का संधान अपने धनुष पर करती है तो उधर उसके जवाब में सुखिस भी एक अस्त्र का संधान करता है.

इधर रण क्षेत्र में दूसरी तरफ महेंद्र पुर के उप सेनापति का सामना एक अन्य राक्षस से हो जाता है वे दोनों एक दुसरे से लगातार युद्ध कर रहे हैं तो दूसरी तरफ निवेदिता के भाई का सामना अन्य राक्षसों से होता है. एक बलशाली राक्षस का सामना लौहार पुत्र आयुष्मान से होता है.

रणक्षेत्र के एक ओर मणिकृतिका और सुखिस के मध्य के भयानक युद्ध छिड़ा हुआ है. सुखिस मणिकृतिका की ओर एक अस्त्र छोड़ता है जो मणिकृतिका के धनुष पर लगता है. उसका धनुष निचे गिर जाता है. उसके हाथ पर चोट लगने की वजह से वो चीख पड़ती है. मीणा पुत्र और मानिकेय दुखी हो जाते हैं. जहाँ मीणा पुत्र एक अन्य रथ पर बैठा हुआ है तो वही मानिकेय कुछ मन्त्र बोलकर उसे होश में लाने का प्रयास कर रहा है.

इधर आयुष्मान का दूसरे राक्षस  के मध्य गदा युद्ध छिड़ा हुआ है. वह राक्षस आयुष्मान की छाती पर जोर से गदा की मारता है. वह जोर से नीचे गिरता है. वह उस का उपहास करते हुए जोर से हँसता हैं- हा हा हा, सामना करो. ये लो.

फिर वो जैसे ही उसके जोर से मारने की कोशिस करता है आयुष्मान निचे पड़ा हुआ ही अपना बचाव कर लेता है. फिर वह उस राक्षस के खड़ा होकर अपनी लात की जोर से मारता है. वह नीचे गिर जाता है.

इधर दूसरी तरफ उपसेनापति एक अस्त्र का संधान उस राक्षस के खिलाफ करता है और वो राक्षस वही झलकर राख हो जाता है. उपसेनापति खुश होकर हँसता है- हा हा हा, बड़ा आया मुझसे लड़ने वाला.

इधर वो राक्षस पुन: आयुष्मान के खिलाफ  खड़ा हो जाता है. वह क्रोधित होकर जैसे ही आयुष्मान के मारने वाला था आयुष्मान उसके सर पर जोर से गदा की मारता है और वो पुन: जमींन पर गिर जाता है.

राक्षस- आह..

आयुष्मान क्रोधित होकर कहता है- हा हा हा, क्या हुआ? तुम तो युद्ध कर रहे थे मेरे साथ. उठ! उठ!..

``या... या..``, वह राक्षस क्रोधित होकर खड़ा होता है और फिर आयुष्मान के जैसे ही मारने लगता है आयुष्मान उछलकर उसके एक सींग पर जोर से मारता है और उसका सींग उखड जाता है.

``आ...आ... आह....``, राक्षस दर्द के मारे कराह उठता है और उसकी गदा हाथ से छूट जाती है. वह एक हाथ को अपने सर पर लगा लेता है. फिर वह पुन: क्रोधित होकर जैसे ही गदा की आयुष्मान के मारने लगता है. आयुष्मान अपने आपको बचा लेता है और पुन: उसके दुसरे सींग पर जोर से मारता है और वो सींग भी  उखड जाता है..


राक्षस- आ.. आ.. आह.. 


`` हा हा हा हा,, क्या हुआ दर्द हो रहा है चल खड़ा हो. मैं भी तो देखूं तुझमे कितना दम है.


फिर आयुष्मान क्रोधित होकर अपनी गदा को नीचे फैंक देता है और उस राक्षस को लगातार लातो और घूसों से प्रहार करता है वो फिर जमीन पर गिर जाता है. आयुष्मान अपनी गदा को उठाता है..

`` या....या..` 


फिर वह गदा की उस राक्षस की छाती पर मारता है और इस भयानक प्रहार से उसकी छाती फट जाती है और वो भी मर जाता है.

इधर सुखिस मणिकृतिका के खिलाफ भयानक रूप धारण कर लेता है. वो लगातार अस्त्र पर अस्त्र छोड़ता  है जिनके सामने मणिकृतिका कमजोर पड़ जाती है. फिर  मणिकृतिका क्रोधित होकर एक तीर का संधान करती है और जैसे ही सुखिस के खिलाफ छोड़ती है सुखिस उसके बदले में दूसरा अस्त्र संधान करता है और वो अस्त्र मणिकृतिका के अस्त्र को दो भागो में तोड़ देता है. फिर वह एक अन्य तीर को मणिकृतिका की तरफ क्रोधित होकर छोड़ता है- या... ..

और उस तीर का मणिकृतिका जवाब देती उससे पहले ही वो तीर मणिकृतिका की बाजु पर आकर लग जाता है.

``आह!- मणि कृतिका दर्द के मारे कराह उठती है.


इधर ये नजारा देखकर मीणा पुत्र को गुस्सा आ जाता है वो क्रोधित होकर अपना धनुष उठाता है और एक  तीर सुखिस को मारने के लिए छोड़ता है- ये ले कमीने इसका जावाब दे..

लेकिन सुखिस उसे अपने हाथो से दो भागो में तोड़ देता है और मीणा पुत्र की तरफ एक तीर को छोड़ता है जो तीर मीणा पुत्र की छाती पर लगता है और वो रथ पर गिर जाता है.

मीणा पुत्र जोर से चीखता है- आह...

`` हा हा हा, जब पत्नी मुझे नहीं हरा पाई तो पतिदेव चले मुझे हराने. ``, सुखिस मीणा पुत्र का उपहास करते हुए कहता है.

``सुखिस! तैयार हो जाओ. मैं अब तुम्हे नहीं छोडूंगी. ``, मणि कृतिका को अब गुस्सा आ जाता है. वह क्रोधित होकर लगातार तीर पर तीर चलाती  है जिनमे से कुछ को सुखिस अपने हाथो से तोड़ने का प्रयास करता है लेकिन मणिकृतिका बीना रुके तीर पर तीर चलाती जाती है.

इधर मानिकेय लगातार मन्त्र बोलकर वीरप्रताप की मूर्छा दूर करने का प्रयास करता है.


इधर रण क्षेत्र में  आयुष्मान अपनी जीत का जश्न मनाता है और वो लगातार मणिकृतिका का उत्साह बढ़ा रहा है- शाबाश! मन्नू इसे मत छोड़ना शाबाश। 


एक तरफ इधर निवेदिता के भाई का युद्ध एक अन्य राक्षस के साथ चल रहा है।  निवेदिता का भाई अब युद्ध को निर्णायक मोड़ पर लाने हेतु एक तीर का संधान करता है जिससे उस राक्षस का सर कटकर दूर गिर जाता है। उसकी धड़ हिलती ही रह जाती है। चारो और रणक्षेत्र में उसकी चीख गूंजती है। 

" हा हा हा... ये लो मैंने भी एक को ठिकाने लगा दिया दोस्त।",  वह आयुष्मान को जोर से अपने रथ पर से ही बोलता है।


आयुष्मान गर्व से कहता है- शाबाश! दोस्त। तुमने कर दिखाया। बहुत खूब।" फिर वह मणिकृतिका का उत्साह वर्धन करते हुए कहता है- शाबाश! मन्नू लगातार उस पर प्रहार करो।


इधर मणिकृतिका लगातार एक के बाद एक तीर सुखिस पर छोड़ रही है। लेकिन उसके शरीर पर कुछ खाश असर नहीं हो रहा है। उसके तीर चुभ जाने के बावजूद भी वह हँसते हुए कहता है- हा हा हा हा , क्या हुआ मैंने पहले भी कहा था कि तुम्हारे तीरों का असर मुझ पर न होने वाला। 


मणिकृतिका- हा हा हा हा, वो तो शुरू हो जाएगा। थोड़ी देर रुको। 


मणिकृतिका के इतना कहते ही सभी सुखिस की ओर ध्यान से देखते हैं। इधर मानिकेय वीरप्रताप को होश में ले आता है।  सुखिस मणिकृतिका के ऐसा कहते ही वो क्रोधित होकर जैसे ही अस्त्र का संधान करने लगता है। वह अचानक चीख पड़ता है। 


सुखिस- आ.. आह.. आ.. ये क्या हो रहा है मेरे साथ.. आ.. 


मणिकृतिका, वीर प्रताप, आयुष्मान, मीणा पुत्र और मानिकेय से लेकर सब उसे ध्यान से देखते हैं तो आश्चर्यचकित हो जाते हैं। जो तीर सुखिस के पूरे बदन पर थोड़े बहुत चुभे हुए थे वो उसके शरीर में धंसते जाते हैं। सभी तीर धीरे-धीरे उसकी छाती में अंदर तक धंस रहे थे। वो उसके  सीने के आरपार होने लगते हैं। उसके सीने से खून बहने लगता है। वह चीखने लगता है- आह! आह... आ.. 


वह चीखते हुए जमींन पर गिर जाता है और मर जाता है। माणिकृतिका के चेहरे पर जीत की ख़ुशी साफ़ झलक रही थी। वीरप्रताप उसकी तरफ आश्चर्यचकित होकर पूछता है- शाबाश! मन्नू लेकिन ये कौनसा अस्त्र है? 


माणिकृतिका- भैया यह गातभेदिकास्त्र है। इस अस्त्र का  संधान करने के लिए जो बात अनिवार्य होती है वो यह है कि हमारा विपक्षी जिस गति से युद्ध करते समय अपनी  पलकें झपका रहा होता है उसके एक बार के पलक झपकाने के समय के दौरान ग्यारह तीरो को सामने वाले के शरीर पर  मारना जरुरी है। अगर ऐसा कोई कर पाता है तो फिर दुश्मन का शरीर चाहे चट्टान से भी कठोर क्यों न हो सभी तीर  उसके शरीर को भेद देते हैं। लेकिन ये भी ध्यान रखना पड़ता है कि उन तीरों की संख्या कम से कम ग्यारह सौ होनी चाहिए। 


वीरप्रताप- उफ़! सच में तुम कमाल की हो मन्नू। सामने वाले के अस्त्र से खुद का बचाव करना। फिर उसकी पलकों की गति का भी ध्यान रखना और इस दौरान तीरों की संख्या का भी ध्यान रखना। तुम अद्वितीय हो मन्नू। शाबाश! 


" मणिकृतिका की जय, मणिकृतिका की जय।",  सभी एक साथ मणिकृतिका की जयघोष करते हैं। 


सभी के चेहरे पर जीत की ख़ुशी होती है। फिर वे सुखिस के दुर्ग की और पढ़ते हैं जहाँ निवेदिता, जीत और शंख कैद थे। 


क्रमश.. भाग- 17

दैत्यनगरी में दैत्याधीपति निशुम्भ  अपने सिंघासन पर बैठा है. उसके पास में ही उसका भाई रजनासूर बैठा है. दरबार में कुछ सुंदर नृत्यांग्नाएं नृत्य की प्रस्तुति दे रही हैं. निशुम्भ  मदिरा का सेवन करने में व्यस्त हैं और वह उन नृत्यांगनाओं को देखकर अतीव प्रसन्न है.

`दैत्याधीपति महाराज निशुम्भ की जय हो.``, गुप्तचर दरबार में झुककर प्रणाम करते हुए कहता है.

``तुमने मेरा अधूरा परिचय दिया है मनिकासूर``, निशुम्भ  क्रोधित होकर कहता है.

`` सम्पूर्ण दैत्यनगरी, जीनो, पिशाचो, भूतो और चूडैलों के अधिपति शम्भासूर की जय हो``, गुप्तचर एक ही स्वांस में कहता है.

निशुम्भ - ये हुई न बात. कहो क्या समाचार है?

मनिकासूर- दैत्यधीपति आपके भ्राताश्री..

निशुम्भ - क्या हुआ मेरे भाई को?

मनिकासूर- दैत्याधीपति मुझे क्षमा करें. लेकिन अब मुझे आपको बताना ही होगा.

निशुम्भ क्रोधित होकर कहता है- तुम जो भी कहना चाहते हो साफ़-साफ़ कहो वरना तुम मुझे अच्छे से जानते हो. कहो क्या बात है?

मनिकासूर- दैत्याधीपति, आपके भाई सुखिस, आपके बेटे कुम्भासूर, नील्कासूर, ध्रूमासूर..

निशुम्भ - क्या कर दिया इन सब ने?

मनिकासूर- दैत्यधीपति, अब ये सब नहीं रहे.

``क्या! क्या कह रहे हो? होश में तो हो तुम? तुम्हे पता तो है न की मुझे मजाक पसंद नहीं है.`, निशुम्भ  क्रोधित होकर मनिकासूर से कहता है.

मनिकासूर- मैं सत्य कह रहा हूँ दैत्याधीपति. वो सब अब नहीं रहें. आपके भाई सुखिस ने कुछ असुरो के साथ मिलकर अधोमती राज्य के राजकुमार शत्रुजीत, महेंद्रपुर की राजकुमारी निवेदिता और जीत के भाई शंखवर्मन को पकड़ लिया था. जीत सहित वे तीनो महेंद्रपुर के राजा की तलाश में हमारे राज्य की सीमा में आए थे जिन्हें देखकर आपका भ्राताश्री ने उन्हें बंदी बना लिया. लेकिन इस घटना के बाद अधोमती का राजा वीरप्रताप बदला लेने के लिए एक विशाल सेना को लेकर आया. उसने उनपर आक्रमण किया ओर सबको एक-एक करके मौत के घाट उतार दिया.

`वीरप्रताप! तुमने बहुत बड़ी गलती कर दी. अगर मैंने तुम्हे इस धरती के अंदर नहीं गाड दिया तो मेरा नाम निशुम्भ  नहीं.`, निशुम्भ  क्रोधित होकर अपने सिंघासन से खड़ा होता है. उसके आँखे गुस्से से लाल हो जाती है.




इधर दूसरी ओर वीरप्रताप अपनी पूरी सेना सहित दुर्ग में प्रवेश कर जाते हैं. वे जैसे ही कारागाह के अंदर जाते हैं वहां बहुत सारे केदियों के साथ निवेदिता, शंख और जीत को भी कैद में रखा गया था. वे सबसे पहले उन तीनो को कैद से छुडाते हैं. जीत वीरप्रताप के गले मिलता है तो इधर शंख मणिकृतिका के गले मिलता है. सभी की आँखों में आंसू आ जाते हैं. इधर निवेदिता का भाई निवेदिता को भी छुड़ाकर ले आता है. वे सभी से एक-एक करके गले मिलते हैं.

शंख अपने आंसू पोंछते हुए मणिकृतिका से कहता है- बुआ आप कैसी हैं?

मणिकृतिका उसके माथे को चूमते हुए कहती है- मैं तो ठीक हूँ बेटा तू कैसा है?

फिर वह जीत के घाव को देखकर उसकी तरफ जाती है और कहती है- बेटा तुझे तो लग गई.

``ये तो योधाओ का श्रृंगार हैं बुआ. वैसे भी आपके भी तो चोट लगी हुई है.`, जीत ने मुस्कुराते हुए कहा.

आयुष्मान- तुम नहीं सुधरोगे जीत.

जीत- आप ही से तो सीखा है काका श्री हार न मानने की कला. खैर चलो अब हमें अमरपाली के महाराजा श्री धीरेन्द्र सिंह को और उनके मंत्रीजी को छुड़ाना है.

वीरप्रताप- क्यों नहीं जीत? चलो चलते हैं.

फिर वे दुसरे कक्ष में जाते हैं. जहाँ राजा धीरेन्द्र सिंह और उनके मंत्री बंद थे. फिर वे उनकी सांकल खोलते हैं. इधर निवेदिता का भाई बाकी के कैदियों को छुड़ाता है.

वीरप्रताप और अन्य लोगो को एक साथ देखकर अमरपाली के महाराज धीरेन्द्र अत्यधिक प्रसन्न होते हैं. वे वीरप्रताप के गले मिलकर कहते हैं- राजन! आपका बहुत-बहत धन्यवाद जो आपने हमें इस दुष्ट से बचाया.

वीरप्रताप- अरे! राजन यह तो हमारा कर्तव्य था. हमें तो जीत ने आपके बारे में बताया था की आपको भी यहाँ कैद करके रखा है. चलो आप चलिए.

महाराज धीरेन्द्र की आँखों में आंसू आ जाते हैं. वह दुखी होकर कहता है- राजन! मैं आपके इस अहसान को कभी नहीं भूलूंगा. मैं आपके लिए इस युद्ध में जी जान लगा दूंगा और युद्ध की रणनीति बनाने में आपकी मदद करूंगा.

वीरप्रताप- जी महाराज, आपके विचारो का स्वागत है.

``पिताजी उस दुष्ट सुखिस ने हम तीनो को छल से पकड़ा था. लेकिन अब इसका बदला में निशुम्भ  के सीस को काटकर आपके चरणों में अर्पित करके लूँगा.``, जीत क्रोधित होकर कहता है.

``लेकिन ये सब इतना आसन नहीं है वत्स उसे हराना बहुत मुश्किल है.``, अमरपाली के महाराज धीरेन्द्र गंभीर होकर कहते है.

जीत ने क्रोधित होकर कहा- ये आपके जैसे योधा के लिए होगा मेरे लिए नहीं राजन. मैं उसको तबाह कर दूंगा.

``जीत पहले उनकी बात तो ध्यान से सुन लो. ये तुम्हारी क्षमताओं पर अंगुली नहीं उठा रहें हैं.``, निवेदिता ने जीत की तरफ प्यार भरी नजरो से देखते हुए कहा.

``हाँ! पुत्र हमें महाराज धीरेन्द्र की बातो को ध्यान से सुनना होगा. अगर आपके पास कोई रणनीति हो तो आप बताएं महाराज.``, वीर प्रताप ने गंभीर होकर कहा.

`` जरुर! राजन. दैत्यराज निशुम्भ , उसका भाई रजनासूर उसका जयेष्ट बैठा काटकासूर और भी न जाने कितने राक्षस हैं जो केवल मायावी विद्या ही नहीं जानते बल्कि दिव्यास्त्रो के भी ज्ञाता हैं. उन्हें हराने के लिए हमारे पास विशेष शक्तियों का भी होना अनिवार्य है. इस दुर्ग के एक गुप्त दरवाजे को पार करने के बाद एक गुफा आती है जहाँ चिरकाल तक युवा रखने वाली एक औषधि है जिसे दैत्यगुरु ने बनाई है. अगर हमने उसे किसी तरह प्राप्त कर लिया तो हम सभी पुन: जवान बन जाएंगे और हमारे अंदर दिव्य शक्तिया भी आ जाएगी जिससे हमें असुरों को हराने में आसानी होगी. लेकिन..

मानिकेय- लेकिन क्या महाराज?

महाराज- लेकिन उस औषधि को हम आसानी से प्राप्त नहीं कर सकते क्योंकि उस औषधि की सुरक्षा एक धूमकेतु नामक असुर करता है. जो स्वयं बहुत शक्तिशाली है और मायावी शक्तियों का ज्ञाता है.

जीत- तो क्या हुआ मैं उसे आसानी से हरा दूंगा?

महाराज- उसे हराना इतना आसान नहीं है. मैंने उसके बारे में सुना है की उसे वही हरा सकता है जो उसके गले को घोंटकर मार सके.

जीत- हा हा हा, ये तो कितना आसन है मैं उसे मल युद्ध में पहले हरा दूंगा और फिर गला घोंट दूंगा.

महाराज- ये इतना आसन नहीं है वत्स.

जीत- आप बात को ज्यादा घुमाओ नहीं महाराज. सीधे-सीधे बोलो.

महाराज- मैं अब जो कुछ भी बोलूँगा तुम्हे समझ नहीं आएगा. तुम्हे उसे देखने के बाद सब पता चल जाएगा की मैं सत्य बोल रहा हूँ या झूठ.

जीत- ठीक है फिर देर किस बात की है. चलो चलते हैं.

महाराज- हम ऐसा बीना सोचे नहीं कर सकते. हम बस कुछ लोग ही वहां जाएंगे क्योंकि अगर उसे एक बार गुस्सा आ गया तो फिर वह पूरी सेना को तबाह कर सकता है. इस लिए हम सभी जाकर यह जोखिम नहीं ले सकते.

आयुष्मान- तो ठीक है महाराज फिर हम चलते हैं. यहाँ सेना की देखभाल के लिए हम मन्नू को छोड़ देंगे.

वीर प्रताप- बिलकुल सही दोस्त. चलो चलते हैं.

इतना कहकर वहां से वीरप्रताप, मानिकेय, जीत, अमरपाली के महाराज धीरेन्द्र आदि उस गुफा की ओर जाते हैं जहाँ पर वो औषधि रखी हुई थी.

क्रमश...........

प्रिय पाठकों, 


आप मेरी नई कहानी (मेरी मोहब्बत का सफर)  भी पढ़ें-

भाग-18


वे जैसे ही गुफा के करीब पहुँचते है. अचानक छाया सी हो जाती है. वे एक तरफ देखते हैं तो उधर कोई भी बादल नहीं होता है. फिर वे जैसे ही अपनी नजरे उठाकर देखते हैं तो वे आश्चर्यचकित हो जाते हैं. जिसने सूर्य के प्रकाश को बादल की भांति आने से रोक रखा था वो कोई ओर नहीं बल्कि एक विशालकाय राक्षस धूमकेतु था. वे सभी खुले मुहं से उसकी विशालता को देखते के देखते रह जाते हैं. वह राक्षस तेज गर्जना करते हुए कहता है- ठहरो! गुफा के अंदर जाने से पहले ये जान लो की आपने अपनी मौत को न्यौता दिया है. एक बार फिर से कह देता हूँ मैं आप सबको. आखिरी बार मौका देता हूँ. आप चाहो तो वापस जा सकते हो वरना मैं आप सबको मौत के घाट उतार दूंगा.

``तुम हमें क्या मौत के घाट उतारोगे लो सामना करो मेरा घमंडी असुर.`` जीत ने अपने धनुष पर बिजली की गति से एक अस्त्र का संधान किया ओर उस राक्षस की ओर छोड़ दिया.

लेकिन वह तीर धूमकेतु के टकराया और टूटकर नीचे गिर गया.

``हा हा हा हा, अब भी मैं तुम सबको जाने का मौका देता हूँ. तुम सब वापस चले जाओ. जिस औषधि की तलाश में तुम सब आए हो कहीं उसे प्राप्त करने के चक्कर में तुम सब अपनी जान से हाथ न धो बैठो. इस पर एकमात्र अधिकार असुर गुरु का हैं. इसे असुर भी प्राप्त करने के बारे में नहीं सोचते तो तुम सब होते कौन हो? यहाँ से वापस चले जाओ.

`` इसका सामना करो. ये लो.``, जीत पुन: क्रोधित होकर एक अन्य अस्त्र को धूमकेतु की तरफ छोड़ देता है.

लेकिन वह अस्त्र भी धूमकेतु के विशालकाय शरीर पर टकराकर टूट जाता है.

``हा हा हा, अरे छोटे बालक, मुझे असुर गुरु के द्वारा कहा गया है की मैं सबको तीन मौके दूं. अगर तुमने अब भी अपनी नादानी नहीं छोड़ी तो फिर मैं तुम्हारा वध कर दूंगा.

वीरप्रताप- सोच क्या रहे हो जीत इसका जल्द अंत करो. वैसे भी हमारे पास ज्यादा वक्त नहीं है.

जीत- जी पिताजी!

फिर वह धूमकेतु से कहता है धूमकेतु, अब तुम्हारा आखिरी समय आ गया है. मरने के लिए तैयार हो जाओ.

``हा हा हा, मतलब तुम सब ऐसे नहीं जाओगे. लो तो फिर करो मेरे इस अस्त्र का सामना.`` फिर वह क्रोधित होकर एक अस्त्र का संधान करता है जो सीधे जीत की छाती पर लगता है और जीत उछलकर दूर जा गिरता है.

``जीत!``, वीरप्रताप जीत की तरफ दौड़कर जाता है और उसे जैसे ही उठाने लगता है वह राक्षस अन्य अस्त्र का संधान कर देता है जिसे रोकने के लिए आयुष्मान जैसे ही अपनी गदा को फैंकता है आयुष्मान की गदा टूट जाती है और वो अस्त्र आयुष्मान की छाती पर लगता है और वो भी मूर्छित हो जाता है.

``धूमकेतु! मैं तुम्हे नहीं छोडूंगा.` फिर वीर प्रताप को आयुष्मान और जीत को मूर्छित करने का गुस्सा धूमकेतु पर आता है और वह क्रोधित होकर धूमकेतु की तरफ अस्त्र का संधान करता है लेकिन वो अस्त्र भी उसका कुछ नहीं बिगाड सकता है.. वे कुछ देर तक आपस में युद्ध लड़ते हैं. इधर मानिकेय जीत को शीघ्र ही वापस होश में ले आता है. जीत अपनी आँखे मलकर युद्ध को देखता है. अचानक धूमकेतु एक अस्त्र का संधान करता है जो वीर प्रताप की छाती पर लगता है और वो भी दूर जाकर गिरता है और मूर्छित हो जाता है.

ये सब देखकर जीत को गुस्सा आता है- धूमकेतु तुमने अपनी मौत को ललकारा है. अब तेरा अंत मेरे हाथो से ही लिखा है.

`` इससे माफ़ी मांग लो जीत. इसे हममें से कोई नहीं हरा सकता है. मेरा कहना मानो इससे माफ़ी मांग लो.`` महाराज धीरेन्द्र कांपते हुए कहता है.

`` हा हा हा, बिलकुल सही कहा तुमने. मुर्ख बालक मुझसे माफ़ी मांग लो मैं तुम्हे अभयदान दे दूंगा वरना तो तुम मुझे जानते ही हो. तुम सब अब मेरे हाथों मारोगे।``

``तू मुझे क्या अभयदान देगा धूमकेतु. चल अब इसका सामना कर.``, फिर जीत लगातार दर्जनों बाण चलाता है लेकिन धूमकेतु के इसका कोई असर नहीं होता है. वह लगातार उस पर अस्त्र पर अस्त्र छोड़ता है. वह थक जाता है.

इधर महाराज धीरेन्द्र डर के मारे दूर जाकर  छीप जाते हैं और वे युद्ध को देखते हैं। तो वही मानिकेय जीत के पास खड़ा है.

ये सब देखकर मानिकेय उससे कहता है- वत्स! तुम इसे इन साधारण अस्त्रों से नहीं मार सकते. जैसे की महाराज धीरेन्द्र ने कहा था की इसके गले को रोंधना होगा. अगर किसी तरह तुम उसके गले को रौंध पाए तो जरुर इसका वध हो जाएगा.

इधर धूमकेतू लगातार जीत के अस्त्रों को विफल कर रहा था. इससे कफा होकर महाराज धीरेन्द्र दूर से ही कहता है – वत्स! यह इतना विशाल है की इसके गले तक पहुंचना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है तो भला इसका वध कैसे कर पाओगे? मेरी मानो इससे माफ़ी मांग लो.

जीत महाराज धीरेन्द्र पर क्रोधित होकर कहता है- आप तो चुप ही रहें. मैंने कहा न मैं आज इसका वध करके ही दम लूँगा.

फिर वह एक के बाद एक अस्त्र उस पर चलाता है लेकिन उसके पास प्रत्येक अस्त्र का तोड़ था. इधर धूमकेतु एक छोटे से पेड़ को उखाडता है और जीत की तरफ फैंकता है जो की सीधे जीत की छाती पर लगता है. और जीत अपने धनुष बाण सहित दूर जाकर गिरता है. मानिकेय ये सब देखकर विचलित्त हो जाता है । वह उसे उठाता है- जीत! तुम ठीक तो हो न. तुम इसे ऐसे पराजित नहीं कर सकते हो.

जीत- मैं ठीक हूँ काकाश्री. लेकिन अब इसका वध कैसे किया जाए? 

इधर धूमकेतु जीत का उपहास करते हुए कहता है-  हा हा हा हा, उठो बालक. बड़े शूरवीर बन रहे थे तुम तो. अब क्या हुआ? तेरा पिता तो पहले ही मूर्छित होकर गिर चुका है. आवो अब सामना करो.

जीत को गुस्सा आता है. फिर वह जैसे ही क्रोधित होकर अपने धनुष को उठाने लगता है. मानिकेय उससे कहता है- जीत ऐसे तो तुम इसका वध नहीं कर सकते। मेरे पास एक उपाय है।  

जीत- क्या?

मानिकेय- . इस राक्षस ने अपने विशालकाय शरीर के चलते शिव से वरदान माँगा था की अगर मेरी मृत्यु हो तो सिर्फ मेरे गले को रेतने की वजह से. अब इसे इस बात का पूर्ण विश्वास था की इसके गले तक कोई नहीं पहुँच सकेगा. लेकिन तुम इसका वध कर सकते हो.

जीत- लेकन कैसे काका श्री?

मानिकेय- तुम भूल गए जीत की तुम किसके पुत्र हो! तुम्हारी माँ एक नाग कन्या है. सभी नाग लोक के नाग तुम्हारे ननिहाल पक्ष के हैं इस कारण अगर तुम उनका आह्वान करोगे तो वो तुम्हारी मदद के लिए जरुर आ जाएंगे. इस लिए तुम तुम्हारे ननिहाल पक्ष के दूर के मामा नाग राज श्री वासुकी का आह्वान करो. वो तुम्हारी सहायता के लिए आ जाएंगे.

जीत- लेकिन काका श्री वो भला मेरी मदद कैसे कर पाएंगे?

मानिकेय- जीत एक नाग जब किसी अंग के चारो और कुंडली मार लेता है तो वह खून के प्रवाह को भी रोक सकता है तो भला वो तो धूमकेतु के गले को रेतने की बात है. तुम अभी उनका आह्वान करो और फिर उन्हें अपने अस्त्र पर बैठने का आग्रह करना फिर तुम धूमकेतु की तरफ पहले एक अस्त्र छोड़ना जिससे वो कुछ समय के लिए देख नहीं पाएगा और फिर शीघ्र ही तुम उस अस्त्र को नाग राज वासुकी को बैठाकर छोड़ देना जिससे वासुकी उसके गले के चारो और कुंडली मार लेगा. वो नाग राज को अपने गले से निकालकर फैंक न दे इसके उपाय हेतु तुम लगातार अपने अस्त्र छोड़ते जाना जिससे उसे उनका जवाब देना होगा. जिस वजह से नाग राज को वक्त मिल जाएगा और वो धूमकेतु का गला रेत देगा.

जीत- वाह! योजना बहुत अच्छी है. फिर वह तुरंत एक अस्त्र छोड़ता है जिससे चारो ओर धुआं हो जाता है. धूमकेतु क्रोधित होकर कहता है- ये क्या है? तुम अब छल युद्ध भी करने लगे. लेकिन तुम मुझे नहीं हरा सकते हो.

फिर वह अपने विशालकाय हाथो से उस धुंए को दूर करता है लेकिन इससे पूर्व की वो उस धुएं को दूर कर पाता जीत पुन: वही अस्त्र उसके सामने छोड़ देता है.


" या.... या.... मैं तुम्हे नहीं छोडूंगा कपटी.. " , धूमकेतु चिल्लाकर बोलता है। फिर वह अपने हाथों से धुएँ को दूर करना चाहता है लेकिन कर नहीं पाता है। 


धूमकेतु- या....


इधर जीत नाग राज वासुकी का आह्वान करता है. नाग राज वासुकी तुरंत उसके सामने प्रकट होता है. वह जीत के सामने मुस्कुराते हुए कहता है- कहो! जीत क्या काम है?

जीत- मामा श्री मैं आपसे आग्रह करता हूँ की आप मेरे इस अस्त्र पर बैठे और फिर उस राक्षस धूमकेतु की गर्दन को दबाकर उसका वध करने में मेरी सहायता करें.

नागराज- लेकिन मैं ऐसा कैसे कर पाऊंगा?

जीत- मैंने एक अस्त्र का संधान कर दिया है जिस वजह से उसे दिखाई नहीं दे रहा है. आप शीघ्र ही इस अस्त्र पर विराजमान होवे.


नागराज- जो तुम्हारी इच्छा वत्स।


इधर धूमकेतु लगातार उस धुएँ से निजात पाने का प्रयास करता है लेकिन वह उससे निजात नहीं पा सकता है। वह क्रोधीत होकर कहता है- मैं तुम्हे नहीं छोडूंगा कपटी बालक..


जीत क्रोधित होकर कहता है- ज्यादा क्रोधित होने की आवश्यकता नहीं है। तेरा अंतिम समय आ चुका है धूमकेतु। अब इसका सामना करो । 


फिर वह नाग राज वासुकी को अस्त्र पर विराजमान होने का इशारा करता है और नागराज उसके एक ही इशारे में उस अस्त्र पर विराजमान हो जाता है। फिर वह  उस अस्त्र को धूमकेतु की तरफ छोड़ता है जिस कारण नागराज को उसके गले तक पहुँचने में आसानी होती है. फिर वो उसके गले के चारो और लिपट जाता है. धूमकेतु को जैसे ही आभाष होता है की उसके गले के चारो ओर कुछ है तो वो चिल्लाता है- आ... आ...

इधर नाग राज ने उसके गले को अपनी कुंडली से जकड़ना शुरू कर दिया तो इधर जीत ने लगातार अस्त्रों को संधान करके धूमकेतू पर वार करने लगातार जारी रखे. जिस कारण उसे वह उलझन में आ गया और नाग राज ने शीघ्र ही उसके गले को दबा दिया.

आ...आ.. आ.. करते हुए धूमकेतु जमींन पर गिर जाता है और  मर जाता है. जीत ने नाग राज वासुकी को धन्यवाद कहा. इधर मानिकेय ने कुछ मन्त्र बोले जिससे वीरप्रताप और आयुष्मान को पुन: होश आ गया. सभी ने जीत का उत्साहवर्धन किया. कुछ ही समय बाद वे गुफा के अंदर प्रवेश कर जाते हैं.

क्रमश.........


भाग-19


``दैत्याधीपति, युवराज शत्रुजीत ने धूमकेतु को भी मार दिया ओर असुर गुरु द्वारा बनाई गई औषधि को भी प्राप्त कर लिया है. अब वे सभी पुन: जवान हो जाएंगे.``, गुप्तचर मनिकासूर दरबार में दौड़ते हुए आता है.

``क्या!`` निशुम्भ  आश्चर्यचकित होकर कहता है.

रजनासुर- लेकिन ये कैसे हो सकता है उसे हराना तो हर किसी के बस की बात नहीं है?

मनिकासुर- तभी तो मैंने कहा था भ्राता रजनासुर. शत्रु बहुत शक्तिशाली है.

निशुम्भ क्रोधित होकर कहता है- रजनासुर... अब वे सब क्षमा करने के योग्य नहीं हैं. हम सभी अब इसका बदला लेकर ही रहेंगे.

रजनासुर- भ्राता श्री आपने बिलकुल सही कहा. अब वो ऐसे नहीं मानने वाले. उन्हें अब हमारी शक्ति का आभाष करवाना ही होगा. उन्होंने औषधि प्राप्त कर ली तो क्या हुआ? हम उन्हें अब भी आराम से हरा देंगे.

निशुम्भ- बिलकुल सही कहा रजनासुर. अब समय आ गया है की तुम इस युद्ध में उनका सर्वनाश करो. अब इस छल-कपट वाले युद्ध को ख़त्म करना होगा और सीधा मुकाबला होगा.

रजनासुर- जी भ्राताश्री.

फिर वह मनिकासुर से कहता है- चलो मनिकासुर अब हमें बताओ की उनकी सेना की ताकत क्या है? अब हम उन्हें उन्ही की भाषा में जवाब देंगे और जो सपना उनका महेंद्रपुर के राजा को छुड़ाकर उनको वापस महेंद्र पुर ले जाने का है वो हम उनका पूरा होने से पहले ही खत्म कर देंगे. हा हा हा हा..

निशुम्भ - बिलकुल सही कहा. रजनासुर. अब भूचाल आने का समय आ गया है.

रजनासुर हँसते हुए- हा हा हा हा, बिलकुल भ्राता श्री. आप निश्चिंत रहें.

फिर वह मनिकासुर से पुन: कहता है- चलो मनिकासुर मुझे अब उनके बारे में विस्तृत जानकारी बताओ ताकि मैं अब उनके खिलाफ योजना बना सकूं...

मनिकासुर- जी, रजनासुर.

फिर वह वीरप्रताप की सेना के प्रत्येक सदस्य के बारे में विस्तार से बताता है.


इधर वीरप्रताप, शत्रुजीत, मानिकेय, आयुष्मान और अमरपाली के महाराज धीरेन्द्र पुन: सुखिस के महल में लौट आते हैं. वे सभी एक-एक करके औषधि का सेवन करते हैं और युवा बन जाते हैं. चाहे मणिकृतिका हो या फिर वीरप्रताप या फिर मीणा पुत्र सभी एक-एक करके जवान हो जाते हैं. इसके अतिरिक्त उनकी शक्तिया भी बढ़ जाती है. उस औषधि का सेवन निवेदिता से लेकर जीत तक सभी नौजवान भी कर लेते हैं ताकि वे भी मरने तक कभी बूढ़े न हों. इसके अतिरिक्त उस औषधि को बचाकर भी रख लिया जाता है. उसके बाद में पूरी सेना सहित युद्ध मैदान में पहुँच जाते हैं. जहाँ उनकी सेना का सामना शम्भासुर की सेना के सामने होना था.


इधर रजनासुर और उसका भाई मुख्य सलाहकार के साथ मिलकर युद्ध की रणनीति बना लेते हैं. अन्य बेटों अगले ही दिन युद्ध का बिगुल बजना था.

इधर दूसरी तरफ युद्ध की स्थिति को देखते हुए शंख को जीत के रथ का सारथि नियुक्त किया जाता है. मीणा पुत्र युद्ध की योजना बनाने के साथ स्वयं हथियार उठाने के लिए भी उत्सुक था हालांकि सभी ने उसके इस निर्णय का मजाक बनाया लेकिन फिर भी वह नहीं मानता है. निवेदिता भी युद्ध मैदान में एक अश्व सेना की टुकड़ी का प्रतिनिधित्व करने के लिए उत्सुक थी जिसके बाद महाराज वीरप्रताप ने अनुमति दे दी. निवेदिता के भाई को भी महेंद्रपुर की सेना का प्रतिनिधित्व करने के लिए कहा गया क्योंकि वह अपनी सेना के बारे में अच्छे से जानता था. महाराज धीरेन्द्र भी अब युवा हो चुके थे ओर युद्ध मैदान में अब दोगुने जोश से उतरने को आतुर थे. इस तरह से सभी एक-एक करके सेना के साथ हो जाते हैं. मानिकेय भी कुछ सेनिको के साथ मरे हुए और बेहोश सेनिको के उपचार हेतु तैयार था. इस तरह से अब पूरी सेना तैयार हो जाती है.



इधर निशुम्भ  की सेना का सेनापति रजनासुर को बनाया गया. उसने सम्पूर्ण सेना को एक ही रात में तैयार कर लिया था. निशुम्भ की सेना का उपसेनापति निशुम्भ  के एक अन्य पुत्र (रजनीचर)को बनाया गया. जब रात को पूरी योजना बन जाती है तो निशुम्भ अपने दो अन्य बेटों से कहता है- कालिकेय और नरभक्षी तुम दोनों को जो काम मैंने बताया है क्या अच्छे से समझ आ गया है.

कालिकेय और नरभक्षी दोनों एक साथ कहते हैं- जी पिता श्री.


रजनासुर- अगर तुम दोनों ने अपने काम को अच्छे से किया तो निसंदेह इस युद्ध को हम दो दिन में ही खत्म कर देंगे. फिर वह निशुम्भ  से कहता है- और भ्राता श्री आपको मैंने बता दिया है की आपको युद्ध क्षेत्र में कब आना है. क्या आपको अच्छे से याद है.

निशुम्भ - मेरा भाई योजना बनाए और मुझे याद न हो ऐसा कभी हुआ है. तुम निश्चिन्त रहो रजनासुर. हम वीरप्रताप की सेना का वो हाल करेंगे की इसके बाद समूचे पृथिवी लोक पर हमारा ही शाषन होगा.

रजनासुर- अवश्य! भ्राता श्री.. फिर वह समूची सेना को युद्ध में लड़ने के लिए तैयार रहने हेतु उनकी सेना के उपसेनापति (रजनीचर) को आदेश देता है- रजनीचर तुम अभी जाओ ओर सेना को तैयार रहने के लिए आदेश दो.

रजनीचर झुककर प्रणाम करते हुए कहता है- जी काकाश्री..

फिर वह वहां से प्रस्थान कर जाता है.

अगले दिन ही दैत्यनगरी में बहने वाली नदी (सीजला) के मुहाने पर स्थित युद्ध मैदान में दोनों सेनाएं एक दुसरे की सेना के सामने खड़ी थी. एक तरफ जहाँ धर्म और न्याय के संस्थापक महाराज वीरप्रताप की सेना थी तो वहीँ दूसरी तरफ अधर्मी और अन्यायी असुर शम्भासुर की सेना था. सीधे तौर पर कहा जाए तो ये युद्ध केवल वीरप्रताप की सेना का निशुम्भ की सेना से नहीं था बल्कि यह युद्ध था धर्म और न्याय का अन्याय के विरुद्ध. अब बस बिगुल बजने की देरी थी.


क्रमशः

भाग-20


शीघ्र ही शंखनाद हुआ और युद्ध शुरू हो गया. दोनों ओर की सेनाए अपने दुश्मनों पर भूखे शेरों की तरह टूट पड़ी. इधर वीर प्रताप की सेना की अगुवाई जहाँ मणिकृतिका कर रही थी तो वहीँ उधर रजनासुर सेना की अगुवाई कर रहा था.

वे सभी एक दूसरे की सेना पर टूट पड़े. इधर राक्षस सेना का एक टुकड़ी का सेनापति नक्खासुर वीरप्रताप की सेना पर टूट पड़ता है. वह एक अस्त्र का संधान करता है ओर सेनिको की टुकड़ी के मध्य छोड़ देता है. एक जोरदार धमाका होता है और सभी सेनिको के शरीर दूर जाकर गिरते हैं. एक जोर की चीख ने आयुष्मान की नजर उसकी और खींच ली. आयुष्मान क्रोधित होकर कहता है- ठहरो! इन दुर्बल सेनिको के ऊपर महाभयंकर अस्त्रों का संधान करके तुम अपनी बहादुरी का बखान मत करो.. अगर हिम्मत है तो मेरे साथ युद्ध करो..

नक्खासुर- हा हा हा, तुम क्या मेरे साथ युद्ध करोगे..

फिर वह एक अस्त्र का संधान करता है ओर आयुष्मान की तरफ छोड़ता है. वो अस्त्र आयुष्मान की छाती पर लगता है. आयुष्मान के मुहं से आह निकल जाती है- आह..

नक्खासुर- हा हा हा.. क्या हुआ.. चल अब इसका सामना कर..

फिर वह जैसे ही अस्त्र का संधान करता है.. आयुष्मान भी उसके प्रतिउतर में एक अस्त्र का संधान करता है. वो अस्त्र सीधा नक्खासुर के अस्त्र को जाकर दो भागो में तोड़ देता है..

आयुष्मान हँसते हुए कहता है- हा हा हा हा,, अब इसका सामना करो..

फिर आयुष्मान अपनी गदा को उसकी और फैंकता है जिससे वो गदा उसके सारथि की छाती पर लगती है और उसके जोरदार प्रहार से सारथि उछलकर नक्खासुर के जाकर टकराता है जिससे नक्खासुर भी जमींदोज हो जाता है. आयुष्मान अपनी दूसरी गदा को उठाता है और नक्खासुर के पास जाता है. नक्खासुर जैसे ही अपनी तलवार उठाकर आयुष्मान से लड़ने लगता है आयुष्मान क्रोधित होकर उसकी छाती पर जोर से गदा का प्रहार करता है- या....

जिससे वो उछलकर पास लड़ रहे एक दुसरे राक्षस के जाकर टकराता है. वो राक्षस भी आयुष्मान का सामना करने के लिए आता है लेकिन आयुष्मान दोनों को बारी बारी से जोर से गदा की मारता है और वो दोनों ही मर जाते हैं...

आयुष्मान- हा हा हा हा,, कोई और है जो मेरा मुकाबला करना चाहेगा.

इधर जीत लगातार शंख के निर्देशन में युद्ध कर रहा है. वे दोनों दुश्मन सेना पर कहर ढहा रहे हैं.निवेदिता भी उनके पास में ही राक्षसों का संहार कर रही है. जीत और निवेदिता दोनों एक दुसरे की आँखों में देखते हैं. इतने में एक राक्षस एक तीर का संधान करता है और निवेदिता के बाजू पर मार देता है. निवेदिता जोर से चीख पड़ती है—आह...

जीत जैसे ही निवेदिता की तरफ देखता है जीत को गुस्सा आ जाता है. वह क्रोधित होकर जैसे ही निवेदिता के बचाव में तीर छोड़ने लगता है. निवेदिता जोर से कहती है- ठहरो जीत! इसका सामना मैं खुद ही करुँगी. तुम दूसरी ओर जाओ.

जीत मन मसोस कर रह जाता है वह कहता है- ठीक है निवेदिता जो तुम्हारी इच्छा..

फिर वह शंख को अपने रथ को आगे बढाने को कह देता है.

इधर निवेदिता और उस राक्षस के मध्य घमासान युद्ध छिड़ जाता है. वह राक्षस फिर से निवेदिता की ओर अस्त्र का संधान करता है लेकिन अबकी बार निवेदिता उसका जवाब दे देती है. फिर वह राक्षस क्रोधित हो जाता है. वह क्रोधित होकर उसकी तरफ अस्त्र का संधान करता है और निवेदिता को ललकारता है- इसका सामना करो तुम...

बदले में निवेदिता भी अपने अस्त्र का संधान करती है. उसका अस्त्र उस राक्षस के अस्त्र को दो भागो में काट देता है और उसकी बाजू पर जा लगता है-. उस राक्षस के हाथो से धनुष और बाण निचे गिर जाते हैं. वह चीख पड़ता है- आह...

निवेदिता क्रोधित होकर कहती है- ज्यादा मत चीखो..दुष्ट. ये लो..

फिर वह एक अन्य अस्त्र का संधान करती है और वह अस्त्र उसके सर को ले उड़ता है.. उसका सर बहुत दूर जाकर गिरता है. निवेदिता के चेहरे पर जीत की ख़ुशी थी. वह मुस्कुराकर जीत की तरफ देखती है.

इधर जीत भी लगातार अस्त्र पर अस्त्र का संधान करता है जिससे दुश्मन सेना में हडकंप मच जाता है.

इधर दूसरी तरफ लौहार पुत्र आयुष्मान पुरे जोश में है. उसके सामने एक सेना की टुकड़ी को सँभालने वाला राक्षस नरकासुर होता है. वह उसकी तरफ देखता है. नरकासुर उसकी तरफ एक अस्त्र का संधान करता है. वह अपनी गदा को उठाता है और उस अस्त्र से अपना बचाव कर लेता है और फिर जोर से उस गदा को उसकी तरफ फैंकता है और वो हाथी सहित उछल जाता है. हाथी जोर से चींघाडता हुआ राक्षसी सेना पर गिरता है और मर जाता है जिसके साथ ही बहुत सारे राक्षस भी मर जाते हैं. वो राक्षस भी दूर जाकर गिरता है और मर जाता है.

आयुष्मान अपने क्रोध की चरम सीमा पर था. वह पुन: इधर उधर देखता है और उसे एक अन्य राक्षस और दीखता है जो वीर प्रताप के सेनिको का संहार कर रहा था. आयुष्मान को गुस्सा आ जाता है और वह पुन: एक अन्य गदा को उठाता है और क्रोधित होकर उस गदा को उस राक्षस को बिना चेतावनी दिए ही उसकी ओर फैंक देता है वह संभल पाता इससे पहले ही वो गदा उसके रथ के पहिए से टकराता है और वोरथ, घोड़ो और सारथि सहित हवा में उछल जाता है. इसके साथ ही रणक्षेत्र में आयुष्मान के नाम से राक्षसी सेना में भय का साया छा जाता है. उन्हें पता नहीं था की आयुष्मान इस तरह से प्रलय ला देगा. वे डर के मारे दूर भागने लगते हैं.

इधर एक ओर मीणा पुत्र और मणिकृतिका भी युद्ध में खूब जोहर दिखा रहे हैं. जहाँ मणिकृतिका पूरी राक्षसी सेना पर भूखी शेरनी की तरह टूट पड़ी है तो वही मीणा पुत्र एक दो राक्षसों को मार रहा है. वह अपने धनुष पर जैसे ही अस्त्र का संधान करता है इतने में एक तीर उसकी बाहं पर आकर लगता है. वह जोर से चीख पड़ता है- आह..

मणिकृतिका जल्दी से जब उसकी तरफ देखती है तो वह पाती है की मीणा पुत्र की जान खतरे में है. वह जैसे ही उसे बचाने के लिए उस राक्षस के विरुद्ध अस्त्र का संधान करने लगती है मीणा पुत्र उस तीर को निकालते हुए कहता है- ठहरो! मन्नू.. मैं संभाल लूँगा इसे..

इतना कहकर वह उसकी तरफ एक तीर चलता है. जिसका असर उस राक्षस पर बिलकुल नहीं होता है.

``हा हा हा,, तुम्हारे धनुष से निकले तीरों का मेरे शरीर पर कोई असर नहीं होगा. चलो और मारो.`` राक्षस मीणा पुत्र के युद्धकौशल की खिल्ली उड़ाते हुए कहता है.

``या.. इसका सामना करो..`` फिर वह एक अन्य तीर को उसकी तरफ छोड़ता है. लेकिन वह भी उस राक्षस पर कोई प्रभाव नहीं छोड़ पाता है..

`` हा हा हा, कहा न कुछ नहीं होगा.. ओर मारो.``

फिर मीणा पुत्र एक अन्य तीर का संधान उसकी और करता है जिसका भी उसके ऊपर कोई असर नहीं होता है.

इधर उसके प्रहारों का असर न होने की वजह से वो राक्षस अपने धनुष और बाण को नीचे छोड़ देता है. फिर वह अपनी बाहें फैलाते हुए कहता है- हा हा हा, चलो मारो.. मेरे ऊपर तेरे तीरों का कोई असर नहीं होने वाला है.. हा, हा हा हा हा..

``अच्छा! चलो देखते हैं की असर होता है या नहीं``, फिर मीणा पुत्र जब उसकी ओर देखता है तो उसके हाथो में किसी भी तरह का कोई अस्त्र नहीं था. वह मुस्कराते हुए आग्नेय अस्त्र का संधान करता है और जल्दी से उस राक्षस की ओर छोड़ देता है. वह निचे से अपने धनुष बाण उठा पाता उससे पहले ही वो अस्त्र उसकी छाती पर लगता है और वो जलने लगता है..

``आ..आ... आ....`` और फिर उसके रथ पर भी आग लग जाती है. उसका सारथि भी जल जाता है. वह जोर से चीखता हुआ निचे गिर जाता है और मर जाता है.

मणिकृतिका मीणा पुत्र की मानसिक क्षमता को देखकर मुस्कुरा उठती है. मीणा पुत्र मुस्कुराते हुए मणिकृतिका से कहता है- दिमाग नाम की भी कोई चीज होती है देवीजी. युद्ध दिमाग से भी लडे जाते हैं.. हा हा हा, बेचारा अतिआत्मविश्वास की वजह से मर गया. हा हा हा..

मीणा पुत्र को राक्षस का वध करने की बहुत ख़ुशी होती है..

इधर दूसरी और वीर प्रताप की सेना की बांछे खिल उठती हैं क्योंकि उन्हें अब जीत साफ़ दिखाई दे रही थी. रजनासुर और उसके अन्य भाई राक्षसी सेना की हौसला अफजाई करते हैं. इतने में रजनासुर का छोटा बेटा (शम्भाशूल) अपने पिता से कहता है- मुझे जाने दो पिताजी उस आयुष्मान का वध तो मेरे हाथो ही लिखा है..

रजनासुर- साबाश! मेरे पुत्र.. जाओ और उसका सर्वनाश कर दो.

फिर वह आयुष्मान की ओर निकल पड़ता है. वह जैसे ही आयुष्मान की तरफ जाने लगता है उसे बीच में ही जीत मिल जाता है. वह उसे बीच रास्ते में ही रोक लेता है.- ठहरो! मेरा सामना करो.. मैं तुम्हे युद्ध के लिए ललकारता हूँ.

शम्भाशूल- हा हा हा हा, जो तुम्हारी इच्छा..

इतना कहकर वह जीत की तरफ एक अस्त्र का संधान करता है. जीत भी उसकी तरफ एक अस्त्र का संधान करता है. लेकिन उसका अस्त्र असफल हो जाता है.

शम्भाशूल- हा हा हा, क्या हुआ? तुमने तो खुद चलकर मुझे युद्ध के लिए ललकारा है.

``इसका सामना करो दुष्ट.. फिर वह दूसरे अस्त्र का संधान करता है और उस राक्षस की तरफ छोड़ देता है. वह अस्त्र उस राक्षस के सारथि को मार देता है. फिर वह लगातार तीन बाण चलाता है जिनमे से एक उसके मुकुट को ले उड़ता है दूसरा उसके पाँव पर लगता है और तीसरा उसकी छाती में चूब जाता है..

वह दर्द के मारे चीख पड़ता है- आह.आ.....

``ज्यादा मत चीखो.. अभी तो शुरू हुआ है.. चलो इसका सामना करो..``

फिर एक अन्य अस्त्र का संधान करता है जो उसकी गर्दन ले उड़ता है. वह जोर से चीख पड़ता है.

``नहीं! ऐसा नहीं हो सकता है. मेरा बेटा पराकर्मी है. उसे मारना उस जीत के बस की बात नहीं है.``, रजनासुर जोर से युद्ध में सन्देश पहुंचाने वाले सन्देशवाहक पर चिल्लाता है.

सन्देशवाहक- सेनापति जी वो नहीं रहा है..

उसके इतना कहते ही वो जोर से चिल्लाता है और कहता है- अब वक्त आ गया है इस युद्ध को खत्म करने का.. मुझे लगा इन्हें ऐसे ही खत्म कर देंगे लेकिन इन सबने तो हमारे नाक में दम कर दिया है. फिर वह धीमे से कालिकेय और नरभक्षी को कुछ कहता है.

वे दोनों गर्दन हिलाते हैं.

क्रमश....

[13/06, 08:20] Guru: भाग- 21 


युद्ध क्षेत्र में वीरप्रताप की सेना का पलड़ा भारी नजर आ रहा था की तभी ही अचानक नरभक्षी और कालिकेय मायावी रूप धारण कर लेते हैं. वे एक-एक सेनिको को उठाकर ले जाने लगते हैं. अचानक जैसे ही वीरप्रताप की नजर उन पर पड़ती है. वह एक तीर का संधान करते हुए जैसे ही उनके ओर छोड़ता है तो रजनासुर उसके सामने आ जाता है.

``हा हा हा, मेरा सामना करो वीरप्रताप.``, रजनासुर उसे युद्ध के लिए उकसाता है.

वीरप्रताप अपने अस्त्र को उसकी ओर छोड़ता है तो इधर दूसरी तरफ से रजनासुर भी जवाबी अस्त्र का संधान करता है. रजनासुर का अस्त्र वीरप्रताप के अस्त्र को दो भागो में तोड़ देता है और फिर रजनासुर एक अन्य अस्त्र का संधान करते हुए कहता है- इसका सामना करो..

वीरप्रताप उस अस्त्र का सामना करता उससे पहले ही वो अस्त्र उसके सारथि को लगता है और वो बेहोश हो जाता है.

``हा हा हा, क्या हुआ संभालो इसे..`` रजनासुर जोर से हँसता है.

``उठो! सारथि. उठो..`` वीरप्रताप उसे उठाने का प्रयास करता है.

इतने में रजनासुर की नजर मानिकेय पर पड़ती है जो एक घायल सेनिक का ठीक करने के लिए जा रहा था, वह क्रोधित होकर अपने मन में कहता है- इस कमीने पंडित ने नाक में दम कर रखा है. फिर वह एक अस्त्र का संधान करता है और जोर से बोलता है- संभलो पंडित..

लेकिन मानिकेय कुछ कर पाता उससे पूर्व ही वो अस्त्र मानिकेय के लग जाता है और वह मर जाता है. आयुष्मान उसे देखकर अपने अस्त्रों को नीचे छोड़ देता है और उसकी और दौड़ता हुआ जाता है. वह मानिकेय को उठाने के लिए कहता है- मानिकेय... मेरे भाई खड़ा हो..

`` हा हा हा, क्या हुआ ये तो मर गया अब तुम सबको कौन जिन्दा करेगा? हा हा हा...`` रजनासुर आयुष्मान का उपहास करते हुए कहता है..

``मैं तुझे नहीं छोडूंगा कमीने..``, आयुष्मान क्रोधित होकर खड़ा होता है लेकिन रजनासुर एक अस्त्र का संधान करता है और कहता है- मेरा सामना करने के लिए तुम्हे अस्त्रों की जरूरत होगी जो की अब तेरे पास नहीं है चल मरने के लिए तैयार हो जा.. हा हा हा.``

आयुष्मान क्रोधित होकर कहता है- ये युद्ध के नियम के विरुद्ध है...

रजनासुर- हम असुरों पर कोई नियम नहीं लागु होते हैं..

फिर वह शीघ्र ही अस्त्र का संधान करता है और उसकी और छोड़ देता है जिससे आयुष्मान भी मर जाता है.

``हा हा हा हा, कालिकेय.. इससे पहले की मानिकेय का बेटा इन्हें अपनी विद्या से पुनर्जीवित करे इन दोनों की लाश को अपने सेनिको की सहायता से यहाँ से उठाकर नदी किनारे डाल दो.``, रजनासुर जोर से कालिकेय को आदेश देता है.

कालिकेय- जो आज्ञा काका श्री..

फिर कालिकेय दोनों की लाश को कुछ राक्षसों को आदेश देकर उठवा देता है.

इधर नरभक्षी ने भी कहर ढहाना शुरू कर दिया है वह शीघ्र ही निवेदिता के भाई, खाती पुत्र और अमरपाली के महाराज धीरेन्द्र को भी मार देता है और उन तीनो की लाश को भी ठिकाने लगा देता है. अब युद्ध में पलड़ा असुरो की ओर झुक गया. चारो और वीर प्रताप की सेना में कोहराम मच जाता है. नरभक्षी और कालिकेय ने मिलकर सबसे पहले छोटे सेनिको को मारकर उठाना शुरू कर दिया ताकि वीरप्रताप की सेना की सेनिको की संख्या कम पड़ जाए.

इधर ये सब देखकर मणिकृतिका और वीरप्रताप को गुस्सा आता है. उनके पास में ही मीणा पुत्र अपने रथ के साथ है. मणिकृतिका क्रोधित होकर कहती है- ये क्या हो रहा है भैया? उन सबकी लाशो को नरभक्षी और कालिकेय लेकर चले गए हैं...

वीरप्रताप- मन्नू! ये समय क्रोध जताने का नहीं है. सयम से काम लो. ये उनकी युद्ध की रणनीति है. उन्हें पता था की अगर उन्होंने मानिकेय को उठवा लिया तो निश्चित ही हमारी शक्ति आधी हो जाएगी.

मणिकृतिका- जी भैया.. लेकिन अब क्या किया जाए?

मीणा पुत्र- मेरे पास एक उपाय है. लेकिन उपाय मुश्किल है.

मणिकृतिका- आप जल्द से उपाय बताओ..

मीणा पुत्र- हम सभी यहाँ सब संभालते हैं तब तक तुम युद्ध क्षेत्र से जाकर पता लगाओ की मानिकेय और आयुष्मान को वो राक्षस किस ओर ले गए हैं. तुम्हे जैसे ही पता चल जाए तो तुम उन्हें वापस पुनर्जीवित कर देना क्योंकि तुम्हे यह काम अच्छे से आता है.. जब सभी सेनिक पुनर्जीवित हो जाएंगे तो हमारी शक्ति वापस बढ़ जाएगी वरना जिस तरह से वो हमारी सेना का संहार कर रहे हैं उसे देखते हुए तो हम इन सबके सामने शाम तक भी नहीं टिक पाएंगे.

वीरप्रताप- लेकिन सोमू? ये काम तो शंख भी आसानी से कर सकता है..

मीणा पुत्र- कर तो सकता है लेकिन अगर शंख को भेजा गया तो जीत को भी साथ जाना होगा. इस तरह से हमारे दो योधा यहाँ से जाएंगे जिससे हमें ज्यादा नुक्सान होगा. इस लिए मन्नू उन राक्षसों का सामना भी कर लेगी और उन्हें पुनर्जीवित भी कर लेगी.

मणिकृतिका- वाह! उपाय उतम है.


मणिकृतिका योजना का क्रियान्वयन करे इससे पूर्व ही रजनासुर ने वीरप्रताप को चुनौती दे दी. उन दोनों के मध्य घमासान युद्ध छिड़ जाता है. एक के बाद एक घातक अस्त्रों का संधान होता है. मणिकृतिका कुछ समय के लिए सोचने पर विवश हो जाती है. इधर वह सोच रही होती है की कुछ ही पल में एक तीर मणिकृतिका की भुजा पर आकर लगता है..

``आह!``, मणिकृतिका के मुहं से आह निकल जाती है.

वह जैसे ही नजर उठाकर देखती है तो पाती है की उसके सामने कालिकेय था. उसे ये सब देखकर बहुत क्रोध आता है इस लिए उन दोनों के मध्य भी युद्ध छिड़ जाता है.

इधर दूसरी तरफ मीणा पुत्र एक राक्षस का जैसे ही वध करता है उसके सामने नरभक्षी आ जाता है. वह मीणा पुत्र को युद्ध के लिए चुनौती दे देता है. उन दोनों के मध्य कुछ देर के लिए तो युद्ध होता है लेकिन शीघ्र ही नरभक्षी ने मीणा पुत्र को भी मार दिया और उसे कोई वापस पुनर्जीवित न कर दे इस लिए वो उन राक्षसों को मीणा पुत्र की भी लाश को ले जाने का आदेश देता है जो सभी सेनिको की लाशो को नदी किनारे डाल रहे थे.

अब बहुत कम सेनिक वीरप्रताप की सेना में बचे हुए थे. इधर नरभक्षी अब जाकर सीधी चुनौती जीत को दे देता है उन दोनों के मध्य भी घमासान युद्ध शुरू हो जाता है. लेकिन अब युद्ध की परिस्थिति पूर्ण रूप से बदल जाती है. अब वीरप्रताप की सेना के बहुत कम सेनिक रह जाते है. मीणा पुत्र, मानिकेय, महाराज धीरेन्द्र, निवेदिता का भाई, आयुष्मान, और खाती पुत्र सब एक-एक करके मारे जा चुके थे. अब सिर्फ निवेदिता, जीत, वीरप्रताप, मणिकृतिका और कुछ सेनिक ही युद्ध क्षेत्र में बचे थे. अब शत्रु सेना का पलड़ा भारी हो जाता है. इधर मणिकृतिका वहां से जा नहीं पाती है क्योंकि उसे मजबूरन कालिकेय के साथ युद्ध करना पड़ रहा था.

क्रमश......

[13/06, 08:20] Guru: भाग - 22


मणिकृतिका का कालिकेय, जीत का नरभक्षी के साथ तो वहीँ वीरप्रताप का रजनासुर के साथ भयंकर युद्ध छिड़ हुआ था. रजनासुर, नरभक्षी और कालिकेय तीनो ही क्रमश: वीरप्रताप, जीत और मणिकृतिका पर भारी थे. इधर निवेदिता अपने भयंकर अस्त्रों का संधान करके राक्षसी सेना का संहार कर रही थी लेकिन वह अकेले ही उन सभी राक्षसों का सामना कर पाने में असक्षम सी थी. उसने क्रोधित होकर एक भयंकर अस्त्र का संधान किया और युद्ध क्षेत्र में छोड़ दिया. लेकिन शीघ्र ही उस अस्त्र ने प्रकोप ढहाना शुरू कर दिया. लेकिन ये क्या? उस अस्त्र से केवल असुर ही नहीं मर रहे थे बल्कि वीरप्रताप के सेनिक भी मर रहे थे. इधर मणिकृतिका, जीत और वीरप्रताप युद्ध करने की वजह से इस बात पर ध्यान नहीं दे पाते हैं लेकिन युद्ध कौशल को कम जानने और भयंकर अस्त्रों का सही से संधान न कर पाने की वजह से निवेदिता ने अपनी ही सेना का ज्यादा नुक्सान कर रही थी.

इधर दूसरी ओर सभी मरे हुए सेनिको को नरभक्षी और कालिकेय की सेना की टुकड़ी एक नदी किनारे सभी की लाशो को फैंक देती है. मणिकृतिका को कैसे भी करके उस जगह जाकर उन सभी को पुनर्जीवित करना था. वह एक अस्त्र का संधान करती है और उसे कालिकेय पर छोड़ देती है. वह अस्त्र इतना भयानक होता है की कालिकेय वहीँ ढेर हो जाता है. वह जोर से चिल्लाकर जीत से कहते है- जीत मैं उन्हें पुनर्जीवित करने जा रही हूँ तब तक तुम सब इन्हें संभालो...

जीत- ठीक है बुआ आप जाओ...

इतना कहकर जीत भी युद्ध करने में पुन: वयस्त हो जाता है. इधर रजनासुर ने वीरप्रताप के नाक में दम करा रखा होता है. उन दोनों के मध्य घमासान युद्ध छिड़ा हुआ है.

इधर दूसरी ओर मणिकृतिका उस नदी किनारे पहुँच जाती है लेकिन इससे पहले की वो मानिकेय को जिन्दा करने लगती है एक तीर उसकी भुजा पर आकर जोर से लगता है.

``आह!`` मणिकृतिका के मुहं से दर्दरूपी आह निकल जाती है लेकिन वह दर्द की ओर ध्यान देने की बजाय उस तीर को निकाल देती है.

फिर वह जैसे ही ऊपर अपनी नजर उठाकर देखती है तो दर्जनों राक्षस उसके समक्ष खड़े होते हैं. उनमे से एक मणिकृतिका को ललकारते हुए कहता है- हा हा हा हा.. इन्हें पुनर्जीवित करने से पहले हमारा सामना करो..

इतना कहकर वह एक भयंकर अस्त्र का संधान करता है और मणिकृतिका के ऊपर छोड़ देता है.

इधर रजनासुर को जैसे ही आभाष होता है की मणिकृतिका अपने सभी साथियों को पुनर्जीवित करने के लिए चली गई है तो वह तुरंत युद्ध को ख़त्म करना चाहता था. इस लिए उसने एक के बाद एक भयंकर अस्त्र का संधान किया. उन सबका वीरप्रताप के पास कोई जवाब नहीं था.

वह एक अस्त्र का संधान करता है जिससे वीरप्रताप मूर्छित हो जाता है. इधर ये सब देखकर जीत को गुस्सा आ जाता है. वह एक के बाद एक अस्त्रों का संधान नरभक्षी पर करता है लेकिन नरभक्षी के पास उसके सभी अस्त्रों का जवाब था. अब युद्ध क्षेत्र में वीरप्रताप की सेना की तरफ से मुख्य रूप से सिर्फ निवेदिता और जीत ही रह पाते है. ये सब देखकर जीत विचलित सा हो जाता है.

वह लगातार नरभक्षी पर अस्त्रों की बोछार कर रहा था. इधर दूसरी और रजनासुर मणिकृतिका को रोकने हेतु नदी की ओर प्रस्थान कर जाता है. ये सब देखकर जीत को गुस्सा आ जाता है. वह एक के बाद एक नरभक्षी पर तीर चलता है..

`हा हा हा, तू मेरा कुछ भी नुकसान नहीं कर सकता जीत.. चल अब इस अस्त्र का सामना कर..`` इतना कहकर नरभक्षी उसकी तरफ एक अस्त्र छोड़ता है लेकिन जीत उसका जवाब बखूबी दे देता है.

`` अब मैं तुम्हे नहीं छोडूंगा. चल इसका सामना कर.` जीत एक बार फिर से महाभयंकर अस्त्र का संधान करता है और नरभक्षी की तरफ छोड़ देता है. इधर नरभक्षी जैसे ही मरता है. जीत शंख से कहता है.- शंख तुम जाओ और पिताजी की मूर्छा दूर करो.

शंख- जो आज्ञा भैया.

शंख जाकर वीरप्रताप की मूर्छा को दूर कर देता. इधर निवेदिता सभी राक्षसों का डटकर सामना कर रही थी. फिर वीरप्रताप और जीत दोनों मिलकर राक्षसों का संहार करने में लग जाते हैं. लेकिन अचानक ही तेज धमाका होता है. और किसी की भयानक हंसी सुनाई देती है.

`` हा हा हा हा..``

पूरा आसमान उसकी हंसी से गूँज जाता है. वीरप्रताप और जीत जैसे ही अपनी नजर उठाकर ऊपर की ओर देखते हैं तो उन्हें पता चलता है की जिस राक्षस की वो भयानक हंसी की आवाज सुनते हैं वो कोई और नहीं बल्कि स्वयं दैत्यराज निशुम्भ था.

`` हा हा हा हा``, वह अट्ठाहस पूर्ण हंसी हँसता है.

फिर वह एक अस्त्र का संधान करता है और उसे वीरप्रताप के सामने छोड़ते हुए कहता है- ये लो इसका सामना करो..

उन दोनों के मध्य भयानक युद्ध छिड़ जाता है.

इधर मणिकृतिका जैसे ही मानिकेय को जीवित करने लगती है. एक तीर उसकी भुजा पर आकर जोर से लगता है.

``आह!`` मणिकृतिका दर्द के मारे जोर से बोलती है और उसके हाथ से जल का कलश छूट जाता है. वह जैसे ही ऊपर की ओर देखती है तो उसे रजनासुर दिखाई देता है- ठहरो! इतनी भी क्या जल्दी है मणिकृतिका. पहले युद्ध हो जाए.

रजनासुर मणिकृतिका का उपहास करते हुए कहता है.

`` या.... मणिकृतिका जोर अपने एक शस्त्र को उसकी ओर फैंकती है लेकिन रजनासुर उसे दो भागो में तोड़ देता है. फिर मणिकृतिका और रजनासुर के मध्य भयानक युद्ध छिड़ जाता है. वह एक के बाद एक अस्त्रों का संधान रजनासुर के ऊपर करती है लेकिन उसके सारे अस्त्र निष्फल हो जाते हैं.

`` हा हा हा, क्या हुआ मणिकृतिका तुम्हारे अस्त्र तो सबसे श्रेष्ठ थे?``

``ये ले इसका सामना कर दुष्ट`` मणिकृतिका क्रोधित होकर पुन: एक अस्त्र का संधान करती है लेकिन उसका भी असर रजनासुर पर नहीं होता है.

फिर वह अपने दिवायास्त्र का संधान करती है और रजनासुर पर छोड़ देती है. जो उसकी भुजा पर लगता है.

``आह!`` रजनासुर. रजनासुर की एक भुजा काटकर दूर जा गिरती है वह दर्द के मारे कराहता है,

फिर मणिकृतिका दुसरे अस्त्र का संधान करती है और रजनासुर की ओर पुन: छोड़ देती है अबकी बार उसका बायाँ हाथ भी कट जाता है.

``आ.... आ....`` रजनासुर दर्द के मारे कराहता है.

``ये ले दुष्ट अब तेरा खात्मा तय है.`` इतना कहकर मणिकृतिका एक अन्य अस्त्र का संधान करती है और उसे रजनासुर की ओर छोड़ देती है जिससे उसका सर धड से अलग हो जाता है और वह जमीन पर धरासाई हो जाता है. मणिकृतिका जोर से साँस लेती है.


इधर दूसरी ओर निशुम्भ और वीरप्रताप के मध्य भयानक युद्ध छिड़ा हुआ है और जीत और निवेदिता दोनों मिलकर पूरी शत्रु सेना का एक-एक करके संहार कर रहे थे.

निशुम्भ ये सब देखकर क्रोधित हो जाता है वह वीर प्रताप की और भयानक अस्त्र का संधान करता है लेकिन वीर प्रताप उसका अच्छे से जवाब दे देता है.

``इयाह....`` निशुम्भ अपने अस्त्र के असफल होने पर क्रोधित हो जाता है.

``ले इसका सामना कर.`` निशुम्भ उसकी ओर अस्त्र का संधान करता है. लेकिन वीरप्रताप उस अस्त्र का भी जवाब आसानी से मुस्कुराते हुए दे देता है.

``इयाह..... `` निशुम्भ को पुन: क्रोध आ जाता है. वह फिर से क्रोधित होकर लगातार अस्त्रों का संधान करता है जिनमे से एक अस्त्र जीत की भुजा पर जोर से लगता है.

``आह...`` वीरप्रताप के मुहं से आह निकल जाती है.


इधर दूसरी तरफ जैसे ही मणिकृतिका मानिकेय को पुन: जिन्दा करने लगती है. एक तीर उसके हाथ पर आकर लगता है.

``आह!`` मणिकृतिका के मुहं से आह निकल जाती है. वह तीर को निकालते हुए जैसे ही ऊपर की ओर देखती है वो हैरान रह जाती है.

`` हा हा हा हा... तुम्हे क्या लगा की तुम मुझे मार दोगी. मुझे शिव का वरदान मिला हुआ है मुझे कोई भी देवता या इन्सान नहीं मार सकता है.``, रजनासुर पुन: उसके समक्ष खड़ा था.

मणिकृतिका को बहुत गुस्सा आता है. वह क्रोधित होकर फिर से एक भयानक अस्त्र का संधान कराती है जो रजनासुर का सर फिर से धड से अलग कर देती है लेकिन अगले ही पल है वह पुन: उसका उपहास करते हुए जिन्दा हो जाता है और उसका सर फिर से धड से जुड़ जाता है.

मणिकृतिका क्रोध में लगातार उसके सर को उसकी धड से अलग कर रही थी लेकिन वह पुनर्जीवित हो रहा था. ये सब देखकर मणिकृतिका का धेर्य जवाब देने लग जाता है. वह उसका वध करने में बार बार असफल हो रही थी.

आखिरकार वह असहाय हो जाती है तो रजनासुर एक अस्त्र का संधान करता है जो मणिकृतिका की भुजा पर लगता है और वो जमीनदोज हो जाती है.

``हा हा हा हा, चल उठ.. मैं भी तो देखू की कितनी शक्ति है तुझमे..`` रजनासुर मणिकृतिका का मजाक उड़ाते हुए कहता है. वह जमींन पर असहाय होकर गिरी हुई है. उसके सामने बुराई आज बहुत शक्तिशाली नजर आ रही थी. रजनासुर को वरदान मिलने की वजह से उसका वध कर पाना बहुत मुश्किल था. मणिकृतिका साहस जुटाकर खड़ा होने का प्रयास करती है लेकिन वो हो नहीं पाती है.

इधर दूसरी तरफ वीरप्रताप पुन: युद्ध लड़ने के लिए तैयार हो जाता है. वह लगातार निशुम्भ के खिलाफ अस्त्रों का संधान करता है और आखिरकार उसके दो तीर निशुम्भ के शरीर पर लग जाते हैं. वह जमींन पर गिर जाता है. इतने में वीरप्रताप को गुस्सा आ जाता है वह एक तलवार लेता है और अपने रथ से निचे कूद जाता है तो निशुम्भ भी एक तलवार को उठा लेता है और उन दोनों के मध्य भयानक युद्ध शुरू हो जाता है.

इधर दूसरी तरफ जीत और निवेदिता एक-एक कर सभी दुश्मनों को मार रहे थे लेकिन निर्णायक युद्ध वीरप्रताप और निशुम्भ के मध्य लड़ा जा रहा था.

इधर दूसरी तरफ मणिकृतिका निचे गिरी हुई है. वह असहाय है. वह खड़ी होती उससे पहले ही एक औरत शम्भाशुर की पुत्री के साथ वहां जाती है. वह जोर से आवाज देती है- इसका वध आप नहीं कर सकती है. यह कर सकती है क्योंकि इसे वरदान प्राप्त है की इसे ना ही कोई देवता मार सकता है और न ही कोई इन्सान. लेकिन इसका वध यह कर सकती है क्योंकि यह एक राक्षस पुत्री है . आज यह अगर अनाथ है तो इसकी वजह से क्योंकि इसने इसके पिताजी का गलत प्रयोग किया था.

शम्भाशुर की पुत्री- हाँ! ये सत्य कह रही हैं. मैं इनका वध करने में आपकी मदद करुँगी क्योंकि राजकुमार शत्रुजीत ने मुझे अभयदान दिया था.

रजनासुर क्रोधित होकर कहता है- हा हा हा,, वाह आज तो कमाल होगा. एक नन्ही चींटी एक हाथी का शिकार करेगी.. चल मैं भी तो देखूं की तू मेरा कैसे वध करती है?

फिर वह अपनी भुजा को फैला देता है.

शम्भाशुर की पुत्री के आने से मणिकृतिका में पुन: जोश आ जाता है. वह कुछ कहे उससे पहले ही शम्भाशुर की पुत्री ने अपने नन्हे हाथो से मणिकृतिका के हाथो से धनुष और बाण को ले लिया उसने उस पर बाण का संधान किया. मणिकृतिका ने चाप को खींचने और धनुष को उठाने में उसकी मदद की.

उसने अपने हाथो से बाण को रजनासुर की ओर छोड़ा और वो तीर उसकी छाती में घूस गया और वो मर गया.

मणिकृतिका के चेहरे पर जीत की ख़ुशी छा गई.

इधर दूसरी तरफ निशुम्भ और वीरप्रताप के मध्य युद्ध छिड़ा हुआ है. आखिर कार वीरप्रताप क्रोधित होकर निशुम्भ की भुजा पर जोर से तलवार की मारता है और उसकी एक भुजा कट जाती है.

``आ...` निशुम्भ कराहता हुआ जमींन पर गिर जाता है..

वीरप्रताप के चेहरे पर ख़ून लग जाता है. वह जोर से हँसते हुए कहता है- हा हा हा. उठ निशुम्भ.. तुम तो दैत्याराज थे न. क्या हुआ? आज तो बुराई अच्छाई के आगे हार ही गई न..

``आ...`` वह दर्द के मारे कराहता है.

फिर वीरप्रताप उसपर आखिरी वार करता है और वो मर जाता है.

इधर जीत और निवेदिता ने भी सभी राक्षसी सेना का संहार कर दिया है. पूरी सेना वीरप्रताप, जीत और निवेदिता की जय-जय कार करती है और वे निशुम्भ के महल की ओर जाते हैं क्योंकि उन्हें वहां निवेदिता के पिताजी, माँ और भाई को छुड़ाना था.

इधर दूसरी और मणिकृतिका शम्भासुर की पुत्री का धन्यवाद करती है. वह सबको एक-एक करके जिन्दा करती है. वे सब भी महल की ओर प्रस्थान करते हैं. लेकिन आगे जाकर सभी आश्चर्य चकित हो जाते हैं क्योंकि वो जैसे ही महल के द्वार के पास पहुँचते हैं.. वीरप्रताप, जीत और बाकी के सभी सेनिक मृत पाए जाते हैं. वे ये सब देखकर आश्चर्यचकित हो जाते हैं की भला ये अब कैसे हुआ? क्योंकि सभी राक्षस और राक्षसी सेना तो मारी जा चुकी थी.

मानिकेय उन सबको रोकते हुए कहता है- ठहरो! मैं जब तक आगे बढ़ने का न कह दूं तब तक आगे मत बढ़ना..

क्रमश...

[13/06, 08:21] Guru: मणिकृतिका समेत सभी लोग इस बात से आश्चर्यचकित थे की भला वीरप्रताप, शंख और जीत सहित सभी सेनिको को किसने मारा हालाँकि उन्होंने सभी राक्षसों और दैत्यराज निशुम्भ को भी मार दिया था. ये सब सोचते हुए जैसे ही थोडा आगे बढ़ने लगते हैं अचानक मानिकेय कहता है- ठहरो! मेरे कहने से पहले आगे मत बढ़ना कोई भी. मुझे यहाँ कुछ भी ठीक नहीं लग रहा है.

मणिकृतिका- लेकिन यहाँ ऐसा क्या हुआ है की सभी इस तरह से खत्म हो गए?

मानिकेय- वही पता लगा रहा हूँ. थोडा वक्त चाहिए.

मानिकेय कुछ देर के लिए मन्त्र बोलता है की अचानक ही कुछ चुड़ैलें उन सब पर धावा बोल देती हैं. मणिकृतिका अपने धनुष पर अस्त्रों का संधान करती है और उन्हें एक-एक करके मारने लगती है. अचानक से हुए इस हमले से सबको उन सब से युद्ध करने में दिक्कत आ रही थी. मणि कृतिका, आयुष्मान, महाराज धीरेन्द्र और निवेदिता का भाई उन सब से निपटे इससे पूर्व एक भयानक अस्त्र आकर सीधा आयुष्मान की छाती पर लगता है और वो दूर जा गिरता है.

आ....

फिर दूसरा अस्त्र आकर खाती पुत्र का लगता है. और वो भी मूर्छित होकर गिर जाता है.

मणिकृतिका को गुस्सा आ जाता है. वह उन सभी चुडैलों का सामना कर रही होती है लेकिन अचानक से इन आते अस्त्रों के रहस्य को वह जान नही पाती है. वह जोर से चिल्लाकर कहती है- कौन है ये? जो भी हो मेरे सामने आए. मैं भी तो देखूं की ऐसा कौन है जो मेरे धनुष बाणो से मरा नहीं है..

मणिकृतिका के ऐसा बोलते ही एक तीर आकर मणिकृतिका की भुजा पर लगता है.

आह.....

`हा हा हा हा, इतनी जल्दी भी क्या है मुझसे मिलने की?` .

सभी को ये आवाज जानी पहचानी सी लगती है. फिर सभी के ऊपर लगातार एक के बाद एक तीरों की बोछार होने लगती है.

``आ.. आ..``सभी दर्दभरी आवाज के साथ निचे गिरते हैं.

मणिकृतिका भी नीचे पड़ी कराहती हुई गुस्से में जोर से कहती है- कौन हो तुम? जल्दी से सामने आओ.

``हा हा हा हा हा, चलो आ ही जाती हूँ.`, इतना कहते ही उस महल के अंदर से निवेदिता अपने सौतेले भाई, माँ, और पिता के साथ आती है. कुछ चुड़ैलें उन तीनो की जंजीरों को पकडे हुए थी.

उसे इस भयंकर रूप में देखकर सभी आश्चर्यचकित हो जाते हैं.

``निवेदिता तुम? तुम.. और यहाँ? ये सब कैसे?``, निवेदिता का भाई जोर से कहता है.

``हाँ! मैं.. क्यों इसमें आश्चर्य वाली क्या बात है भैया? भूल गए मुझे. बचपन में जब कोई चीज मुझे नहीं मिलती थी तो मैं उसे छीन लेती थी.. नहीं समझे.. हा हा हा हा, कोई बात नहीं तुम सब अब संदेह में ही मरो. हा हा हा....`, ऐसा कहते हुए वो जोर-जोर से हंसती है और एक भयानक अस्त्र का संधान करती है और अपने भाई पर छोड़ देती है जिससे वो भी ढेर हो जाता है..

``मैं तुम्हे नहीं छोडूंगा. तुमने अपने पिता के साथ धोखा किया है.`` महाराज धीरेन्द्र जैसे ही ऐसा कहकर उसके ऊपर तीर चलाने लगते हैं उससे पहले ही निवेदिता एक अस्त्र का संधान करती है और उनकी ओर छोड़ती है जिससे वो भी मर जाते है.

``हा हा हा... ``, फिर वह एक के बाद एक सभी को मार रही होती है इतने में मणिकृतिका फिर से हिम्मत जुटाकर खड़ी होती है. वह कुछ देर उससे युद्ध लडती है लेकिन आखिर कार निवेदिता फिर से एक तीर चलाती है जिसका जवाब मणिकृतिका समय रहते नहीं दे पाती है और वो फिर से निचे गिर जाती है. इधर फिर निवेदिता पूरी सेना पर चुडैलो सहित टूट पड़ती है. महाराज अमरपाल ये सब देखकर दुखी हो जाते हैं. मानिकेय के भी तीर लगा होने के कारण वह जमीन पर गिरा हुआ था. इधर मणिकृतिका फिर से साहस जुटाकर खड़ी होती है तो मानिकेय धीमे से कहता है- मन्नू! मुझे लगता है की इसकी शक्तियों का राज इसकी आँखे हैं. इस कारण इसकी आँखों पर तीर को मारो..

मणिकृतिका साहस जुटाकर एक तीर का संधान करती है ओर उसे उसकी आँख पर मारती है.

``आह!.. `` निवेदिता के हाथ से धनुष बाण गिर जाते हैं और वह कराहने लग जाती है. इधर वह वापस संभल पाती उससे पहले ही मणिकृतिका ने सभी चुडैलों को एक-एक करके मारना शुरू कर दिया. सभी चुडैलों के पास उसके अस्त्रों का जवाब नहीं था. इधर निवेदिता जैसे ही पुन: अस्त्रों को उठाने लगती है. वह फिर से एक तीर का संधान करती है और उसकी बाईं आँख पर छोड़ देती है. जिससे उसकी बची खुची शक्तियां भी खत्म हो जाती है. आखिरकार मणिकृतिका ने एक भयंकर अस्त्र का संधान किया और निवेदिता पर छोड़ दिया जिससे वो मर जाती है.

सभी मणिकृतिका की जय बोलते हैं. कुछ ही देर में मानिकेय ने सभी को जीवित कर दिया. मणिकृतिका ने महाराज अमरपाल, महारानी को और उनके बेटे की जंजीरों को खोल दिया. जीत की उत्सुक आँखे जानना चाहती थी की आखिर निवेदिता ने ये सब क्यों किया तो महाराज अमरपाल ने सबको निवेदिता की हकीकत से रूबरू करवाया. वो दुखी मन से निवेदिता के विषय में कहने लगे.

``ये बहुत बुरी थी बेटा. शुरू में तो मुझे भी इसकी हकीकत का पता नहीं चला था. यह ऊपर से जितनी खूबसूरत थी उतनी ही अंदर से इसकी सोच दूषित थी. इसके सर पर सता पर बैठने का जो भूत सवार था उसे यह सीधे पूर्ण नहीं कर सकती थी क्योंकि मेरा जयेष्ट बेटा हरेन्द्र सिंह ही सिहांसन का उतराधिकारी था. इसे पता था की दैत्यराज का इस समूचे पृथ्वी लोक पर एक छत्र राज करने का सपना है. इस लिए इसने एक चाल चली. इसने महेंद्रपुर के मुख्यमंत्री की सहायता से मेरा अपहरण करवाया और कुछ कपटी सेनिको के माध्यम से हमें बंदी बनाकर शम्भाशुर के पास भेज दिया. शम्भासुर को तो यह तक पता नहीं था की इसके पीछे किसकी चाल है इस लिए उसने हम तीनो को आगे सुखिस के पास और सुखिस ने हमें निशुम्भ के पास भेज दिया. फिर इस माध्यम से हम यहाँ कैद हो गए. लेकिन फिर भी इसकी चाल सफल नहीं हो पाई सता पर बैठने की क्योंकि मेरी अनुपस्थिति में हरेन्द्र ने सता को अपने हाथ में ले लिया. इस लिए उसने दूसरी चाल चली. इसे पता था की इस धरती पर अधोमती और महेंद्र पुर राज्य ही सबसे ज्यादा शक्ति शाली हैं और दूसरी तरफ दैत्यराज की नगरी. इस लिए इसने सबसे पहले अपनी खूबसूरती से तुम्हे फंसाया ताकि तुम जब पकडे जाओ तो निश्चित ही अधोमती राज्य और महेंद्र पुर दोनों एक हो जाएंगे और दैत्यराज के खिलाफ युद्ध लड़ेंगे. जिससे दोनों और के सेनिक खत्म हो जाएंगे और जो नहीं होंगे उन्हें छल से खुद मार देगी. इस तरह से यह महेंद्र पुर, अधोमती और दैत्यनगरी पर एक छत्र राज कर लेगी. इस कारण कोई भी इसके खिलाफ नहीं हो सकता था क्योंकि दुश्मन तो मारे जा चुके होंगे. लेकिन इसकी बुरी चालो का अंत हो गया बेटा. वो भी मणिकृतिका की वजह से. इसने आज साबित कर दिया की यह सच में एक अद्वित्य योधा है.``. इतना कहते-कहते महाराज अमरपाल की आँखों में आंसू आ गए.

निवेदिता के बारे में सुनकर सभी लोगो को विश्वास तो नहीं होता है लेकिन हकीकत उनके सामने थी. कुछ ही समय पश्चात वे दैत्यानगरी की बागडोर महेंद्र पुर के कार्यवाहक राजा हरेन्द्र सिंह के हाथो में पकड़ा दी और उसकी उतराधिकारी के रूप में शम्भासुर की पुत्र को राजकुमारी बना दिया. हरेन्द्र सिंह के राजतिलक के बाद वे सभी वापस अधोमती राज्य और महेंद्र पुर राज्य की ओर आने लगे. पूरी सेना समेत सभी ख़ुशी-ख़ुशी वापस आ रहे थे. जीत और शंख एक ही रथ पर बैठे हुए थे. शंख ने जीत की उदासी को देखते हुए कहा- क्या हुआ भैया उदास नजर आ रहे हो?

जीत- कुछ नहीं छोटे. बस ऐसे ही..

शंख ने मुस्कुराते हुए कहा- निवेदिता की याद आ रही है क्या?

जीत- हाँ! क्या है न चाहे वो कितनी भी बुरी क्यों न हो लेकिन मैं तो उससे प्यार करता था न छोटे.

शंख- हाँ भैया लेकिन अब आगे से ध्यान रखना..

जीत- किस बात का..

`` बस यही की जब मैं यह कह दूँ की मुझे इस लड़की की आँखों में कुछ रहस्य नजर आ रहा है और यह मुझे ठीक नहीं लगी तो उसे प्यार करने के चक्कर में नहीं पड़ोगे..``शंख ने कटाक्ष करते हुए कहा.

जीत- तुम्हे अब भी मजाक सूज रही है छोटे..

शंख ने मुस्कुराते हुए कहा- नहीं भैया मजाक कहाँ? मैं तो बस आगाह कर रहा था की कोई निवेदिता जैसी मिले तो पहले मुझसे गुरु ज्ञान ले लेना..

``सुधर जा छोटे..`` इतना कहकर जैसे ही जीत उसे मारने लगता है.. मणिकृतिका उन्हें देख लेती है जिससे जीत उसे मार नहीं पाता है और पूरी सेना उन्हें ये सब करते हुए देखकर मुस्कुराने लगती है.

इस तरह से वे अपने-अपने राज्यों की ओर प्रस्थान कर रहे थे। महाराज अमरपाल जैसे ही अपने राज्य पहुँच जाते हैं वे निवेदिता की मौसी, उन धोखेबाज सैनिको को और मुख्य मंत्री को कठोर दंड की सजा सुनाते हैं और उसके बाद अधोमति राज्य और महेंद्र पुर राज्य की दोस्ती ओर गहरी हो गई। 

समाप्त!

प्रिय पाठको,

इस कहानी को पूरी करने में बहुत सी दिक्कतों का सामना करना पडा क्योंकि इस दौरान मैं चार उपन्यास लिख रहा हूँ. इसके अतिरिक्त मेरी निजी जिन्दगी में भी बहुत से उतार चढ़ाव आए. खैर अब पूर्ण रूप से स्वस्थ हूँ और नई रचना को पूर्ण जोश से लिखने के लिए तैयार हूँ. मेरी अगली रचना कोई कहानी नहीं होगी बल्कि एक उपन्यास है जो की प्रेम पर आधारित है. इसका नाम (मेरी मोहब्बत का सफर) होगा अत: आप मेरे इस सफर में साथ देने की कृपया करें.

आपका अपना

   गुरु


समाप्त🙏