कहानी- बड़े घराने की बहू
भाग - 24
लेखिका - आस्था जैन "अन्तस्"
श्रेणी- हॉरर, सस्पेंस-थ्रिलर, आध्यात्मिक, स्त्री-विमर्श
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बड़े घराने की बहू

पार्ट 24

राहुल, स्नेहा, दयान, नायक जी, नीति जी, रामायणी जी और नव्यम पैलेस के दूसरी मंजिल की एक कमरे में थे , एक गहरे नीले रंग का चक्र उन सबको घेरे हुए था जो उनकी ऊर्जा चक्र के कारण निर्मित हुआ था।

" ये क्या समय है घर आने का , राधौगढ़ के बड़े घराने के छोटे मालिक अबतक कहाँ थे" 
नरेंद्र सिंह राठौड़ की धर्मपत्नी मणिप्रभा अपने महल (पैलेस) के एक कमरे में खड़े अपने बेटे विनायक से पूछ रहीं थीं।

उन्हें देखते ही राहुल और स्नेहा समझ गए कि यही रानी साहिबा हैं । उनके चेहरे पर वही तस्वीर जैसा तेज था, माथे पर वही बेंदा , ममता का अथाह सागर तो उनकी आँखों के स्नेह से ही बना हो, वेशभूषा से ही कुलीनता और शालीनता का परिचय हो रहा था, उनका मौन ही उनके चरित्र की पवित्रता का बखान करता हो और वाणी बस ममता को शब्दों का रूप देने के लिए मिली हो।

" क्षमा चाहता हूँ माँ,  गुरु जी ध्यान करवा रहे थे, संध्या से कब रात्रि हुई पता ही नहीं चला " 8 वर्षीय बालक विनायक सिंह राठौड़ बड़ी मासूमियत से  अपनी माता  के आगे अपने कान पकड़ कर बोला।

तभी कमरे में  सफेद धोती कुर्ते में नरेंद्र कमरे में आये और बहुत ही प्यार से बोले, - "क्या करोगे इतना ध्यान करके , पाठशाला से घर आने के बाद आप कहीं मत जाया करो , मन्दिर में बैठे घण्टो ध्यान करने से कुछ प्राप्त नहीं होगा बेटे" 

विनायक - " गुरु जी ने कहा है कि अगर मैं ईश्वर की आराधना करूँगा तो मुझे मेरी आत्मा  के दर्शन होंगे, मैं अपने आप से मिलने के लिए ध्यान सीख रहा हूँ पिताजी"

नरेंद्र - " ओह तो यह बात है, ठीक है, तब मैं तुम्हे नहीं रोकूँगा, अभी चलो भोजन के लिए वैसे ही बहुत देर हो चुकी है, तुम्हें भूख भी लगी होगी , चलो आओ मेरे साथ" 

विनायक - " मैं तो रात में खाने का त्याग करके आया हूँ पिताजी, संध्या समय के बाद सूरज ढल जाता है, वातावरण में ऊष्मा कम हो जाती है,  सूक्ष्म जीवों की संख्या कई गुना बढ़ जाती है , छोटे मोटे कीड़े मकोड़े भी निकल आते हैं, रात्रि में भोजन वनाने और खाने से इनकी हत्या होगी और वो भोजन माँस के समान हो जाएगा, इसलिए मैंने गुरुजी के कहने पर रात में भोजन का त्याग कर दिया है"

नरेंद्र- " तुम्हारे गुरु जी ने कहा होगा कि ऐसा करने से भी तुम्हे तुम्हारी आत्मा के दर्शन प्राप्त हो सकेंगे"

विनायक - "जी नहीं पिता जी, सभी जीवों पर दया भाव रखना मेरा कर्तव्य है , उनकी आत्मा मेरी आत्मा एक जैसी है, जैसे मुझे दुख होता है उन्हें भी दुख होता है, अन्य जीव को दुख देकर मैं सुखी होने की कल्पना भी नही कर सकता हूँ"

नरेंद्र - " तो क्या अब तुम भूखे ही सो जाओगे, तुम्हारी माता  को इससे बहुत दुख होगा और सूक्ष्म जीवों को भी दुख न देने वाला मेरा बेटा , अपनी माँ को दुखी नही कर सकता, इसलिए आओ मेरे साथ" 

विनायक - " अरे पिताजी आप फ़िक्र न करें, मैं तो अपनी माता का प्यारा बेटा हूँ, मैं उन्हें दुख नहीं दे सकता, मैंने तो पाठशाला से आकर ही भोजन कर लिया था, उसके बाद ही मैं मन्दिर गया था "

मणिप्रभा मुस्कुरा दीं।

नरेंद्र - " अच्छा , चलो अब अपना आज का पाठ याद करो और फिर सो जाना " 

विनायक - "जी पिताजी" 

अपने बेटे के सिर पर स्नेह से हाथ फेरकर नरेंद्र ने उसका माथा चूम लिया और कमरे से बाहर चले गए।

विनायक मुस्कुराता हुआ अपनी माँ के साथ बैठकर अपना पाठ याद करने लगा ।
उसके बाद मणिप्रभा उसे सुलाकर कमरे से बाहर चलीं गईं , थोड़ी देर लेटे रहने के बाद विनायक उठकर खिड़की के पास आकर खड़ा हो गया। 

" आप सोए नही छोटे मालिक " कमरे में आती हुई एक स्त्री ने कहा जिसका चेहरा घूँघट से ढका हुआ था ।

" काकी मुझे छोटे मालिक मत कहा करो , विनायक बेटा कहा करो " 

" आप हमारे मालिक है , बेटे तो आप हमारी मालकिन जैसी देवी के हैं , इतनी महान देवी के बेटे को मैं दासी होकर अपना बेटा कैसे कह सकती हूँ भला " वो स्त्री विनायक के पास आकर बोली।

" आपको पता है काकी , मैं बहुत जल्द अपने आप से मिलने वाला हूँ " 

" क्या.... , कौन मिलवाएगा आपको आपसे ?"

" मेरे गुरुजी ने मुझसे वादा किया है वो ध्यान के जरिये मुझे मुझसे मिलवाएँगे" 

" आप की बातें तो मुझे समझ नही आतीं छोटे मालिक, आप सो जाइये, बड़े मालिक ने कहा था कि मैं देखकर आऊँ आप सोए हैं या नहीं, पर आप तो जाग रहे हैं, अच्छा मैं आपको कहानी सुनाऊँ"

" नहीं, पिताजी कहाँ हैं अभी , अपने कमरे में ?"

" हाँ, अब आप सो जाइये , मैं चलती हूँ"
कहकर वो स्त्री कमरे से चली गई।

विनायक उस स्त्री के सामने तो बिस्तर पर लेट गया था लेकिन उसके जाते ही पुनः उठ खड़ा हुआ । उसके दिमाग मे कुछ चल रहा था। 

वो उठकर कमरे से बाहर आ गया, सबसे छुपते छुपाते वो उसी कमरे में आ गया जो वर्तमान में राहुल का केबिन  है।

कमरे में नीचे जाने के लिए सीढ़ियाँ खुली हुईं थीं, विनायक नीचे उतर गया, उसकी माँ के कमरे में कोई नहीं था , दरवाजे खुले हुए थे ।

सभी तीन मंजिलों से होता हुआ विनायक सबसे आखिरी की मंजिल में पहुँच गया , सभी मंजिलों के कमरों के दरवाजे बन्द थे, उसे नीचे जाने में कोई दिक्कत नहीं हुई।

चौथी मंजिल की सीढियों पर छुप के बैठा विनायक अपने माता और पिता की बातें सुन रहा था , वे दोनों एक कुंड के पास खड़े थे , काले रंग के पत्थर उस  कुंड के आधे तक भरे हुए थे और उनमें से अधिकतर चूर्ण हो रहे थे, नरेंद्र अपनी पत्नी पे कुपित हो रहे थे और वे सिर झुकाए खड़ीं थीं।

नरेंद्र- " देखिये इस कुंड को रानी साहिबा, दिनों दिन इन पत्थरों का चूर्ण बनता जा रहा है, कुछ ही समय बाद ये सब चूर्ण बनकर मिट्टी हो  जाएंगे और मिट्टी हो जाएगी हमारे पूर्वजों की परम्परा , हमारी माँ और दादियों के बलिदान, और ये सब होगा आपकी लापरवाही के कारण , क्या इसी तरह हमारे इस बड़े घराने की बहू होने का कर्तव्य निभा रही हैं आप"

मणिप्रभा- " मैं विनायक को समझाऊँगी , वो मेरी बात जरूर समझेगा , उसे हमारे घराने के नियम , परंपराएं, बलिदान और उसके कर्तव्य का बहुत ही जल्दी बोध हो जाएगा स्वामी"

नरेंद्र -"लेकिन कब , कब होगा ये सब, विनायक तो किसी गुरु के चक्कर मे पड़कर जाने कैसी कैसी बातें सीख रहा है, आप विनायक को समझा सकें , उसे हमारे जैसा बना सकें , इसीलिए आपके कमरे से आपको एक बार बाहर आने की अनुमति दी हमने, इतने वर्षों से उस महान कार्य को रोक रखा जो विनायक के जन्म के पश्चात ही हो जाना चाहिए था"

मणिप्रभा- " मैं जानती हूँ , विनायक को हमारे घराने के संस्कार देना ही मेरा पहला कर्तव्य है, किन्तु वो अभी बालक है, इतनी सी अवस्था मे उसे...." 

नरेंद्र- " बस रानी साहिबा, इतनी सी अवस्था? तो आप क्या चाहती हैं हम विनायक के किशोर होने का इंतजार करें और तब तक हमारे घराने की वर्षों की तपस्या मिट्टी हो जाये, नहीं , अगले महीने के कृष्ण पक्ष की चौदस की रात ही हमें  इस कुंड के पत्थरों को तुम्हारे जीवन अश्रु का आधार देना होगा "

मणिप्रभा का पूरा शरीर काँप गया , उसी काँपती हुई आवाज में वे बोलीं , - " स्वामी, विनायक अभी समझ नही पायेगा, विचलित हो जाएगा उसका मन , क्या कुछ समय और.... "

नरेंद्र - " लगता है , तुम्हारे मन मे तुम्हारे कर्तव्य से अधिक अपने बेटे का मोह है, इससे पहले कि ये मोह इतना बढ़ जाये कि तुम्हें इस घराने की बहू होने का मान भी न रहे, इस मोह को अंतिम आहूति बनाकर स्वाहा करना होगा तुम्हें, अब मुझे तुम्हारी कर्तव्य निष्ठा और स्वामीभक्ति पे शंका हो रही है,अब मैं और देर नही कर सकता"

मणिप्रभा के चेहरे पर संसार भर का ताप पीड़ा बनकर उभर आया , उसी पीड़ा से आहत होकर वे बोलीं - " मेरी निष्ठा पर शंका! इतना त्याग और बलिदान देने के बाद मेरे स्वामी को मुझपर शंका हो गई, आज तक इस घराने की बहू होने के हर कर्तव्य का पालन किया है मैंने , इतने वर्षों की तपस्या, मेरे सारे सपनों की हत्या , मेरी ममता का दमन , क्या इन सब पर शंका है मेरे स्वामी को  "

नरेंद्र (क्रोध से तमतमाते हुए) - ये तुम्हारा कर्तव्य है मणिप्रभा, जो कि अनिवार्य है, इसप्रकार उपकार बनाकर गिनाने का ये व्यवहार ही इस बात का प्रमाण है कि तुम अपने कर्यव्य पथ से विचलित हो रही हो "

मणिप्रभा- " तो मेरे नाथ को मेरी कर्तव्य निष्ठा का प्रमाण भी मिलना चाहिए, तैयारी करिए स्वामी , मैं आहूति के लिए तैयार हूँ" 

विनायक सब सुन रहा था, अपनी माता को सीढ़ियों की तरफ आता देख वो वापस अपनी माँ के कमरे में आकर उनके पलंग के पीछे छुप गया ।

मणिप्रभा अपने हृदय में अपमान और आँखों में दृढ़ संकल्प की ज्वाला समाये अपने कमरे में आ गईं , अंदर आकर उन्होंने दरवाजा बंद कर लिया और 
अपने विशाल पलंग के सहारे ज़मीन पर बैठ गई।

वो  दोनो हाथों से अपना चेहरा ढाँके सिसक रही थीं ।

" क्या पाप किया है मैंने देवता, क्यों मेरी ये परीक्षा, क्यों मेरे बलिदान और मेरे त्याग को अनिवार्य समझा जाता है, तुम तो कहते हो कोई तुम्हारे साथ अच्छा करे तुम उसके साथ अच्छा करो , फिर मुझे देवी कहकर मेरे साथ अन्याय क्यों , 
क्यों मुझे मेरे त्याग का प्रतिफल प्राप्त नहीं होगा । क्या एक बड़े घराने में जन्म लेने की , एक बड़े घराने में बहु बनकर आने की यही सजा है कि हर बार मेरे उत्सर्ग के लिये यही शब्द मिलते हैं मुझे कि मेरे बलिदानों का ऋण कभी चुकाया नहीं जा सकता। 
क्यों दैवव ये अन्याय क्यों , पर मैं हार नहीं मानूँगी दैव, शायद कभी भविष्य में मेरे उत्सर्गो का मोल लगाया जाये , मुझे देवी से अधिक एक मनुष्य समझा जाए।"

राहुल को याद आया उसने भी यही शब्द सुने थे जब उसने पहली बार मणिप्रभा जी को इसी कमरे में रोते हुए देखा था।

विनायक की आँखे अपनी माँ को यूँ दुखी देख कर नम हो गईं। वो पलंग के दूसरी तरफ से निकल कर आया और अपनी माँ के सामने आकर बैठ गया और अपने हाथों से माँ के हाथों को उनके चेहरे से हटा कर उनके आँसू पोंछने लगा।

" तुम यहाँ क्या कर रहे हो बेटा, पिताजी गुस्सा होंगें, आपको यहाँ आने की इजाजत नहीं है न, जल्दी से जाओ अपने कमरे में" मणिप्रभा व्याकुल होते हुए बोलीं।

" माँ , दरवाजा तो बन्द है , कोई नहीं देखेगा कि मैं आपके कमरे में आया हूँ , आप रो मत , मैं बहुत अच्छा बेटा बनूँगा" विनायक उनकी गोद मे सिमटते हुए बोला ।

मणिप्रभा ने अपने बेटे को अपने सीने से लगा लिया और बोली - " हाँ, बहुत अच्छे बेटे बनना , अपने पिता और घराने के मान के लिए कुछ भी बलिदान करना पड़े तो पीछे मत हटना बेटा, उनकी हर बात मानना"

" मैं आपके लिए कुछ भी करूँगा माँ, आप जो कहोगी सब करूँगा , बस आप मुस्कुराती रहा करो, रोया मत करो " अपने छोटे छोटे हाथों से बड़े स्नेह से अपना माँ के दोनों गालों को खींचता हुआ  विनायक बोला।

मणिप्रभा मुस्कुरा दीं, फिर अगले ही पल वो मुस्कुराहट पीड़ा के किसी अनन्त गर्त में समा गई । 
अपने बेटे को ह्रदय से लगाकर धीरे से वो बुदबुदाई - " मेरे अश्रु तो सदा से अनिवार्य हैं पुत्र " 

ऊर्जा चक्र में भी सबकी आँखें नम हो गईं थीं , आँखों में आँसू के कण धुँधला पन पैदा कर रहे थे , पलकें झपकते ही धुँधलापन हट गया, और एक अलग ही नजारा साफ साफ दिखने लगा।
क्रमशः..