कहानी- बड़े घराने की बहू
भाग - 25
लेखिका - आस्था जैन "अन्तस्"
श्रेणी- हॉरर, सस्पेंस-थ्रिलर, आध्यात्मिक, स्त्री-विमर्श
....
Part 25
" इस कुंड को देखो मानिक" नरेंद्र महल की जमीन के नीचे चौथी मंजिल के उस बड़े से कुंड के पास एक और व्यक्ति के साथ खड़ा था जिसका नाम मानिक था और उम्र कुछ 22 या 24 वर्ष के आस पास थी ।
नरेंद्र ने कुंड की तरफ इशारा करते हुए आगे कहा, - " ये कुंड हमारी माँ, दादियों और हमारी पत्नी के बलिदान का साक्षी है, हमारी इस बड़े घराने की पाँच पीढ़ियों की वधुओं की मृत्यु ही नही बल्कि जीवन का भी बलिदान लिया है इस कुंड है, समग्र विश्व की स्त्री जाति के उद्धार के लिए हमने अपनी माँ को अपने जन्म के 10 महीने बाद ही खो दिया, अपनी पत्नी का बलिदान करके अपने बेटे से उसके हक की ममता छीन ली "
मानिक - " ये सारे बलिदान व्यर्थ नहीं होंगे गुरुदेव, तंत्र की काली विद्या बलिदान माँगती ही है, लेकिन इसी काली विद्या के जरिये हम दुनिया की हर एक पीड़ित स्त्री को न्याय देंगें , आप ही ने कहा था कि बड़े वरदान के लिए बलिदान भी बड़ा करना पड़ता है"
नरेंद्र - " हमने अपना हृदय बड़ा कठोर रखा है मानिक, हमें पूरा भरोसा है कि विनायक आज जब विलायत से अपनी पढ़ाई पूरी करके आये होंगे तो वे भी हमारी तरह कठोर हो चुके होंगें , मन्दिर के गुरुजी का भूत उनके सिर से उतर चुका होगा"
मानिक -" जरूर ऐसा ही होगा गुरुदेव, छोटे मालिक को 8 वर्ष की उम्र में ही आपने विलायत भेज दिया ताकि रानी साहिबा अपने जीवन अश्रु की आहुति से इस कुंड के पत्थरों को आधार दे सकें, छोटे मालिक के साथ आपने जिस तरह के बालकों को उनकी संगति के लिये साथ भेजा था , उनके साथ रहकर छोटे मालिक की प्रवृत्ति तामसी हो चुकी होगी, इन 17 वर्षो में वे सभी आदतें वो सीख चुके होंगें जो तंत्र विद्या के लिए जरूरी हैं, वे भी आपकी परम्परा को आगे जरूर बढ़ाएंगे"
नरेंद्र - " बढ़ाना ही होगा उसे, हमारे घराने की 6 कुलवधुओं का समर्पण व्यर्थ नही हो सकता मानिक, आज भी उनकी आत्माएं अनंत पीड़ाएँ सह रही हैं , इस तंत्र को मजबूत करने के लिए कितनी ही अन्य पीड़ित स्त्रियों की आत्माएं इस महल में बंधक हैं, विनायक को पुत्र प्राप्ति के पश्चात अपनी पत्नी की भी आहुति देनी ही होगी"
मानिक - " छोटे मालिक कभी अपने घराने की परम्परा का अपमान नहीं सहेंगे लेकिन हम रानी साहिबा जैसी बड़े घराने की बहू बनने लायक कन्या कहाँ से लाएंगें जो इस परम्परा की सातवीं कड़ी बनेगी, आज़ाद भारत में स्त्री समाज इन परम्परा और संस्कारो को बेड़ी की संज्ञा देने लगा है"
नरेंद्र - " मेरे एक मित्र हैं , जमींदार हैं उन्हीं की बेटी है पदमा
देवी, भारत वर्ष में स्त्री समाज अपनी नियति कभी बदल नही सकती मानिक , चाहे कितने ही आंदोलन चलाये जाएं , पदमा देवी भी हमारी रानी साहिबा की तरह राधौगढ़ के इस बड़े घराने की बहू होने का कर्तव्य निभाने के लायक है , बस इंतजार हमें अपने बेटे से मिलने और उसके विवाह का है "
मानिक - " जहाँ तक मुझे याद है, छोटी मालकिन को ख़ानदानी गहनों में से कंगन शगुन में दिए जाएँगे"
नरेंद्र - " हाँ वे कंगन पूरी विधि पूर्वक नव वधू को शगुन में दिए जायेंगे, सातवीं आहुति के प्रमाण बनेंगे ये कंगन "
" कैसी आहुति पिताजी " सीढ़ियों से उतरते हुए युवा विनायक जी ने कहा जो कि शक्ल और शारीरिक बनावट में हूबहू अपने पिता के समान लग रहे थे , बस चेहरे का तेज उनकी माता के समान ही था ।
" विनायक ......, तुम कब आये" नरेंद्र जी ने चौंक कर कहा
विनायक - "बस अभी ही आता जा रहा हूँ, आप ऊपर दिखे नहीं तो मैं नीचे चला आया, आपसे मिलने की अधीरता से मेरा मन व्याकुल हो रहा था"
कहकर विनायक ने नरेंद्र के पाँव छुए और मानिक की तरफ देखने लगा।
" प्रणाम स्वीकार कीजिये छोटे मालिक" मानिक ने सिर झुकाकर हाथ जोड़कर कहा
" ये मानिक है, हमारी सारी जमीन और खेती का लेखा जोखा रखता है ये" नरेंद्र ने उसका परिचय करवाते हुए कहा
विनायक - " तो ये भी मुझे छोटे मालिक कहेगा, विनायक भाई कहो तभी तुम्हारा प्रणाम स्वीकार करूँगा"
मानिक - " मैं अपनी सीमा जानता हूँ छोटे मालिक, इससे आगे बढ़कर आपको कुछ भी कहना मेरे लिए अपराध है"
" चलो ऊपर चलो, वहीं बैठकर बहुत सारी बातें करनी है तुमसे , चलो" नरेंद्र विनायक का हाथ पकड़कर के ऊपर ले जाने लगे .
" पिताजी , इस कुंड का रहस्य अभी भी नहीं बतायेंगे आप मुझे जिस कुंड के कारण मेरी माता की मृत्यु हो गई और मैं उनके अंतिम दर्शन तक न कर सका ,उस कुंड के बारे में जानने का अधिकार है ना मुझे" विनायक ने उन्हें रोकते हुए कहा।
" तुम जानते हो कि तुम्हारी माता की मृत्यु बीमारी की वजह से हुई थी विनायक, तब तुम छोटे थे , विलायत में अपने मामा के पास पढ़ने भेजा था तुम्हें, तुम्हे वापस न बुलाया जाए यही तुम्हारी माता की आख़िरी इच्छा थी , और ये बस एक साधारण कुंड है जिसका पानी मैला हो चुका है " नरेंद्र ने कठोरता से कहा
" जी पिताजी " विनायक निराश होते हुए कहा ।
नरेंद्र विनायक को अपने साथ ऊपर ले गए , वापस जाते हुए एक दृष्टि उस कुंड की तरफ डाली और फिर दृष्टि फ़ेर ली, वो जानते थे कि उनके पिताजी उनसे असत्य कह रहे थे । लेकिन फिर सत्य क्या था , यही उन्हें जानना था।
........
" छोटी मालकिन को बेटा हुए 2 महीने हो चुके हैं गुरुदेव , आख़िर कब तक आप छोटे मालिक से सच छुपाते रहेंगें, आहूति का मुहूर्त अब ज्यादा दिन दूर नही है" मानिक ने चिंतित स्वर में नरेंद्र से कहा।
नरेंद्र- " अगर विनायक के दिमाग से बचपन के फ़िजूल निकल गए होते तो उसे ये परम्परा समझाना बहुत आसान था, लेकिन वो तो वैसा ही है, उसे अब भी यही लगता है कि सभी जीव आत्माएं समान है , सबको जीने का हक है, कैसे समझाऊँ उसे कि दोयम दर्जे की इंसान है स्त्री , बलि चढ़ना ही उसकी नियति है"
मानिक- " पर ये बलि किसी निजी स्वार्थ के लियर नही है, बल्कि स्त्री समाज के कल्याण के लिए ही है , छोटे मालिक को इस तंत्र में सम्मिलित होना ही होगा, क्या उन मित्रो का उन पर कोई प्रभाव नहीं हूआ जो आपने भेजे थे उनके साथ विलायत"
नरेंद्र- " प्रभाव...... , पता किया था हमने , अच्छा प्रभाव पड़ा है विनायक का उन लड़को पर, सब के सब शिष्य हो गए उसके , कोई विलायती शौक नहीं , कोई व्यसन नहीं, कोई दुराचार नहीं, तामसी प्रवृत्ति का कोई चिन्ह भी नही आ पाया है विनायक में, वो इस तंत्र के योग्य नहीं है "
मानिक - " लेकिन फिर छोटी मालकिन को कौन तैयार करेगा आहुति के लिए "
नरेंद्र - " अगर आहुति स्वेच्छा से न मिले तो बल का प्रयोग करना होगा, बल नहीं काम आया तो छल से कार्य सिद्धि करनी होगी"
मानिक- " मतलब , जिस तरह छोटे मालिक की अनुपस्थिति में रानी साहिबा की आहूति हुई थी उसी तरह छोटी मालकिन की भी..... "
" वो दिन कभी नहीं आएगा " क्रोध के ताप से तमतमाते हुए विनायक जी ने कहा।
उन्हें इस तरह अचानक आया देखकर नरेंद्र और मानिक दोनों सकपका गए।
नरेंद्र - " विनायक , बेटा ..... मेरी बात सुनो, हम सब...."
"बस पिताजी बस, आप एक पिता नहीं है, एक पति नहीं है , आप बस एक तांत्रिक हैं, और ये मानिक आपका शिष्य है, इसी तंत्र की बलि चढ़ाया था न आपने मेरी माँ को" दहाड़ते हुए सिंह सा विनायक अपने पिता के सामने आ खड़ा हुआ था, जाने कितने संयम का जोर लगा रखा था उसने जो उसके हाथ अब भी उसके काबू में थे।
" यही परम्परा है बड़े घराने की, पुत्र प्राप्ति के बाद बड़े घराने की हर बहू को अपने जीवन और मृत्यु की आहूति देनी ही होती है, ये अनिवार्य है" नरेंद्र जी ने भी क्रोध का आकंठ पान कर रखा था।
विनायक- " लेकिन क्यों , किस ने अधिकार दिया आपको निर्दोषों की हत्या का, हत्यारे हैं आप मेरी माँ के, इस ढोंग की बलि नही चढ़ने दूँगा मैं पदमा को , न अपने अबोध बालक के बचपन को"
नरेंद्र- " हत्यारा हूँ तो हूँ विनायक, तुम्हें क्या लगता है मुझे मेरी पत्नी से प्रेम नही था, तुम्हे 8 वर्षों तक अपनी माँ की गोद मिली, मैं 10 महीने के आयु में अपनी माँ को खो चुका था, ढोंग कहते हो तुम इस परम्परा को, देखो इस कुंड को, जगत की अनगिनत पीड़ित स्त्री समाज की आत्माओं का दर्द और प्रतिशोध है इसमें , हमारे घराने को इन आत्माओं के उद्धार का वरदान मिला है, इन सभी पीड़ित आत्माओ को देवी का दर्जा मिलेगा हमारे इस अनुष्ठान के पूर्ण होने पर, और इसके लिए बलिदान अनिवार्य है, अगर अपने देश और समाज के लिए बलिदान करने वाला हत्यारा होता है तो हूँ मैं हत्यारा"
विनायक - " इस पाखंड से किसी आत्मा का कोई भला नहीं हो सकता पिताजी, भला एक स्त्री का जीवन बर्बाद करके उसे उसके पति बच्चे परिवार से दूर करके मौत देने से किसका भला हो सकता है, साथ मे इन अनगिनत आत्माओं को पीड़ा और बदले के बन्धन में बांध देने से इनका उद्धार नहीं हो सकता, ये सभी आत्माएं स्वयम सिद्ध ॐ कार स्वरूपी भगवान हैं , इन्हें देवी का दर्जा पाने के लिए पीड़ा सहने की कोई आवश्यकता नहीं "
नरेंद्र- " पीड़ा से ही नव सृजन होता है विनायक , स्त्री समाज के साथ सदैव अन्याय होता आया है, अपराध होते आये हैं, कुदरत के आशीर्वाद और हमारे घराने की बहू , स्वर्गीय श्री नागेंद्र सिंह राठौड़ की पत्नी जगदम्बा देवी के प्रथम बलिदान से हमारे घराने को सदैव पुत्र प्राप्ति का वरदान मिला है और वरदान मिला है दुनिया की सभी स्त्रियों के उध्दार का जिनके साथ कोई न कोई अन्याय हुआ है पुरूष समाज के द्वारा, हमारे घराने के पुरुषों को ये काली विद्या और तंत्र की सहायता से इस घराने की वधुओं का बलिदान देना ही पड़ता है, क्योंकि सम्पूर्ण विश्व के स्त्री समाज के उद्धार करने का वरदान मिला है, यही हमारा कर्तव्य भी है और दायित्व भी, तुम्हारी इन शास्त्र की बातों से किसी का उद्धार नही हो सकता"
विनायक - " और आप या मैं भी किसी का उद्धार नहीं कर सकते, स्त्री समाज के साथ अन्याय होता आया है क्योंकि उन्होंने अपने आपको इंसान नहीं बल्कि स्त्री ही समझ रखा है जिसकी नियति ही है पुरुष की आश्रिता बनकर जीना जब तक स्त्री समाज खुद को इस मानसिकता से मुक्त नही कर लेता तब तक कोई उनका उध्दार नहीं कर सकता, उन्हें समझना होगा कि वे भी पुरूष की ही तरह इंसान हैं , उनके अंदर भी भगवान आत्मा विराजमान है, और सभी आत्माएं बराबर हैं"
मानिक - " आत्माएं बराबर होती है छोटे मालिक, 84 लाख योनियाँ बराबर नहीं होतीं, हर छोटी और कमजोर प्रजाति सदैव से बड़ी और बलशाली प्रजाति के भोजन और भोग का साधन बनती रही है, जिन सूक्ष्म जीवों की आप परवाह करते हो , अरे इनका तो जन्म ही मरने के लिए हुआ होता है, जानवरो का माँस खाना कोई पाप नहीं है, बल्कि ये तो खाद्य श्रृंखला है, इनकी नियति यही है कि ये मानव के हित के लिए जियें और मरें, उसी प्रकार स्त्री की नियति। ही बलिदान है, वो पुरुष की बराबरी नहीं कर सकती, अगर उसके साथ अन्याय या अपराध हुआ है तो उसे न्याय भी पुरुष ही दिला सकता है, हम सब भी वही कर रहे हैं, आपको भी अब समझ जाना चाहिए और छोटी मालकिन को भी समझा देना चाहिए"
विनायक - " मूर्ख हो तुम, और मूर्ख है वह समाज जो अपने स्वार्थ सिद्धि के लिए ऐसी परिभाषाएं गढ़ता है, सत्य तो इससे बिल्कुल अलग है, जीव अपने उत्तम भावो और कर्मो से मनुष्य योनि पाता है जहाँ उसे धर्म और तपस्या के उत्तम साधन और शरीर मिलता है, अन्य पशु,पक्षी , जानवर , सभी मानव के अनुगामी हैं , मनुष्य योनि का कर्तव्य है कि इन जीवों के प्रति दया के भाव रखे उन्हें धर्मोपदेश दे, उनका पालन करे , बदले में ये सब भी मनुष्य को क्या कुछ नही देते, हम सब इसी प्रकृति का हिस्सा हैं
लेकिन उन्हें कमजोर समझ कर उनपे अत्याचार करना उन्हें अपने सामान आत्मा स्वीकार करने की जगह अपने भोजन और भोग का साधन मानना अपराध है, और इसका दंड प्रकृति में मिलता है , ऐसे मनुष्य को भी उन्ही गतियों में जाकर जन्म लेकर वे सब दुख सहने होते हैं जो उसने उन जीवो को अपने मनुष्य रूप में दिए थे,
स्त्री भी मनुष्य योनि की जीव है और पुरुष भी, आत्माएं समान हैं , शक्तियाँ समान हैं , शरीर अलग हैं क्योंकि उसे उसके कर्मों के फल स्वरूप जननी बनने का महान उत्तर दायित्व प्राप्त हुआ है, इस लिए इस अन्तर को अपनी हीनता समझता है पुरुष, और उसका अहंकार आजीवन स्त्री को अपनी आश्रिता बनाकर रखना चाहता है , उसके प्रेम और त्याग से उसे देवी पद की लालसा दिखाता है ताकि उसके इंसानी ख़्वाब को उसी देवी की मूर्ति के नीचे दफना सके। ये है सत्य........"
नरेंद्र - " मैं तुम्हारी बातें समझता हूँ , लेकिन मेरे लिए ये बातें किसी और जन्म में मान्य होंगीं अभी तो राधौगढ़ के बड़े घराने की परंपरा का निर्वहन ही मेरे लिए सबसे ज्यादा जरूरी है, मेरी माँ से भी ज्यादा, मेरी पत्नी से भी ज्यादा, मेरी पुत्रवधु से भी ज्यादा और तुम्हारी आध्यात्मिक ज्ञान की बातों से ज्यादा, सबसे ज्यादा जरुरी यही परम्परा है मेरे लिए, सिर्फ 3 आहुति और, 9वीं आहुति पूरी होते ही 5 पीढ़ियों से चली आ रही इस परंपरा का अनुष्ठान सम्पूर्ण होगा और पूरा होगा मेरा कर्तव्य"
विनायक - "अब भी मेरी बातों का आप पर कोई असर नहीं हो रहा तो ठीक है, मैं आज और अभी ही इस जगह से अपनी पत्नी और बेटे को लेकर चला जाऊँगा , जब आपको इन तंत्र, मन्त्र और परंपराओं के जाल से मुक्ति मिले, अपने किये का जरा भी पश्चाताप हो तो आप भी मेरे साथ चल सकते हैं"
विनायक उसी दिन अपनी पत्नी और बेटे को लेकर वहाँ से चला आया , विनायक ने निश्चय किया कि वो अपने बेटे को अपने जैसे ही सत्य के संस्कार देंगे ताकि वो कभी भी ऐसी किसी परम्परा पर विश्वास न करे, उन्हें लगा कि राधौगढ़ छोड़ देने पर वे सुरक्षित रहेंगें ,
लेकिन नरेन्र्द ने अपनी तांत्रिक माया से भ्रमजाल रचा, विनायक को बुलाकर दिखाया कि कुंड सूख चुका है, सभी आत्माएं आज़ाद हैं और वो तंत्र छोड़ चुका हैं । लेकिन जब विनायक वापस अपनी पत्नी और बेटे को लेकर उस पैलेस में आये तो अपना एक प्रेत सिद्ध करके नरेंद्र ने पदमा देवी को मानसिक रूप से विक्षिप्त कर दिया , पदमा देवी को हर जगह भूत प्रेत और काले साये दिखा करते थे , विनायक सब कोशिशें करके हार गए लेकिन इस माया से पार नहीं पा सके, उनके सरल ह्रदय में पिता की इस तरह की माया और छल का विचार भी न आया और एक रात नरेंद्र ने बिजली के झटकों से पदमा देवी की जान ले ली और उन्हें पैलेस की छत से नीचे फेंक दिया, और मानिक की मदद से पदमा की आहुति उस कुंड में दे दी,
विनायक को अपनी पत्नी की मृत देह भी न मिली, बहुत समय तक वो अपनी पत्नी की खोज करते रहे, औऱ नरेंद्र अपने पौत्र नायक को अपने जैसा बनाने का प्रयास करते रहे,
एक दिन जब अपनी पत्नी के कंगनों को हाथ मे पकड़े हुए विनायक उनके शोक में डूबे हुए थे , तब एक आँसू की बूंद उन कंगनों पर पड़ी और उनकी पत्नी की मृत्यु का दृश्य उन्हें दिखाई दिया , सच मालूम चलते ही विनायक को अपने पिता और उस पैलेस से घृणा हो गई , अपने बेटे को साथ लेकर वे वहाँ से चले आये, और आगे ऐसा अन्याय न हो इसलिए बाकी के 2 गहने भी अपनी पत्नी के कंगनों के साथ ले आये।
लौटकर कभी भी विनायक राधौगढ़ नहीं गए, वे हर तरह के ध्यान और तपस्या से कोशिश कर रहे थे कि अपनी पत्नी , माँ और हर स्त्री की पीड़ित आत्मा को उस पैलेस से आज़ाद करवा सकें लेकिन उन्हें कोई मार्ग नहीं मिल रहा था ।
फिर भी उन्होंने धर्म का मार्ग नहीं छोड़ा, जब रामायणी उनके घर बहू बनके आई तो उन्हें लगा कि इस मनहूस परंपरा का अंत अब निश्चित ही है, इसलिए उन्होंने तीनो गहने रामायणी को दे दिए और स्वयं ओमकार के ध्यान से आत्मा की विशुद्धि बढ़ाने की तपस्या में लग गए। वे ज्यादातर समय शान्त और कम भीड़ भाड़ वाले मन्दिरों में ही रहा करते थे, उनका मानना था कि स्वयं की आत्मा ही सर्व शक्तिमान है, आनंद और सुख का स्रोत है ,अपनी आत्मा की आराधना से ही उन्हें उस काले कुंड का तोड़ मिल सकता था और उन पीड़ित आत्माओं की शांति का मार्ग भी।
लेकिन कुछ ही समय बाद जब उन्हें पता चला कि नायक ने गोदभराई के दिन ही रामायणी को घर से अपमानित करके निकाल दिया है तो उन्होंने नायक से बात भी न की और तुरन्त ही रामायणी के मुँह बोले भाई मुकेश रावत से सम्पर्क किया इस उम्मीद में कि शायद वो उसके साथ हो लेकिन मुकेश को उस समय इन सब के बारे में पता ही न था ।
मुकेश ने आनन फानन सब जगह ढूंढा तो उन्हें एक स्वयमसेवी संस्था में रामायणी जी मिल गईं लेकिन फिर बहुत ढूढ़ने पर भी विनायक ( दद्दू) उन्हें न मिले , सबके लिए वो भी लापता हो गए थे।
पर असल मे कहीं भी रामायणी के न मिलने पर विनायक दददू वापस राधौगढ़ के पैलेस में आये थे , उन्हें शक था कि शायद उनके पिता ने मानिक के साथ मिलकर उनकी पुत्रवधु का अपहरण किया होगा।
"कहाँ है मेरी बेटी " विनायक ने पूछा , उस समय उनकी आँखों में क्रोध और व्याकुलता चरम सीमा पे थी।
" बेटी? हहहह..... हमारे घराने में बेटियाँ पैदा ही नही होती विनायक , फिर किस बेटी की बात कर रहे हो" नरेंद्र राठौड़ ने अपनी सफेद दाढ़ी सहलाते हुए कहा
" मैं अपने बेटे नायक की पत्नी रामायणी की बात कर रहा हूँ, अभी इसी समय उसे मेरे सामने लेकर आइये , उसे आपके कुंड की बलि नही चढ़ने दूँगा मैं, चाहे आज मुझे आपकी ही बलि क्यों न देनी पड़े" तमतमाते हुए विनायक के चेहरे का तेज देखकर कइयों की जान लेने वाले नरेन्र्द और मानिक दोनो तांत्रिक सहम गये।
वे तीनों उस समय पैलेस की तीसरी मंजिल के एक हॉल में थे जिसमें नरेंद्र कुछ अलग अलग गहनों और तांत्रिक विधि का सामान लिए कुछ कर रहा था और मानिक उस समय कहीं से कुछ मादा जानवर लेकर आया था और ख़ंजर से उनके खून अलग अलग मात्रा में अलग अलग पात्रों में रख रहा था ।
एक दासी से पूछकर विनायक सीधा उसी हॉल में चले आये थे , दरवाजा बंद था जो कि उनके पैर के आघात से खुल गया था या उनके क्रोध से , ये बता पाना कठिन था ।
" बेफिक्र रहो विनायक , अभी समय नही आया है आहुति का , जब पुत्र का जन्म हो जाएगा तो इसी ख़ंजर से उस देवी की आहुति दूँगा उस काले कुंड में अपने हाथों से " उस ख़ंजर को मानिक से लेकर नरेंद्र ने अपने हाथों में लेकर विनायक को दिखाते हुए कहा ।
ऐसी कुत्सित बात को सुनकर विनायक से रहा न गया, उन्होंने पलक झपकते ही वो ख़ंजर नरेंद्र के हाथों से छीन लिया और अगले ही पल...
..
क्रमशः ....
2 Comments
Hmm laga hi tha Bali Wala mamla hai shayad vinayak apne pita ka katal kr dega dekhte h aage
ReplyDeleteAapko pta h bhai ye part likhte time mai itni blank ho gai thi ki mujhe smjh hi nhi aaya mai kya likh rhi hu 😄😄😂.
Delete