उत्तम क्षमा
कहते हैं " क्षमा वीरस्य भूषणम"
यूँ तो आत्मा अनगिनत गुणों का भंडार है, लेकिन जिन गुणों की प्रधानता हैं उन्हें दस लक्षण धर्म कहा गया है, क्षमा को आत्मा के दस लक्षणों में प्रथम स्थान मिला है।
शास्त्रों की व्याख्या में जाएं तो भाषा थोड़ी क्लिष्ट हो जाती है, उसी क्लिष्ट भाषा को आम भाषा मे समझ कर जीवन मे उतारने के दस दिन हैं ये, आत्मा के दस लक्षणों की व्याख्या का पर्व है दस लक्षण धर्म ।
धर्म को हम साधारण भाषा मे समझें तो जो स्वाभाविक है वो धर्म है , जो सहज है, जिसमे बनवटीपन नही है, जो सरल है जो निष्कपट है वही धर्म है, जहाँ कुछ पाखण्ड रचना पड़ जाए वहाँ धर्म का नाश हो जाता है।
इसी तरह सामने वाले को ढोंग में या घमंड से माफ किया तो वो धर्म नही है, साफ दिल से माफ किया तो धर्म है।
किसे माफ करना और कैसे माफ करना ये भी धर्म सिखाता है , जो गलत हो उससे दबकर उसके अन्याय को स्वीकार कर लेना क्षमा नही है, जहाँ अपने से दुर्बल से अनजाने में भूल हुई हो , जिसके हृदय में पश्चाताप हो , जिसका अपराध क्षम्य हो उसे क्षमा करना ।
जिसके हृदय में क्षमा होगी वही न्याय कर सकने में समर्थ होता है। जिसमे क्षमा नही है वो न्याय नही कर सकता , वो तो बैर ही निकालेगा।
हम बोलते समय कुछ करते समय अनजाने ही किसी को बुरा बोल देते हैं या उसका कुछ अहित कर देते हैं, हाथ जोड़कर सरल मन से उनसे क्षमा मांगने के लिए खुद के अहंकार को परे रखना पड़ता है, इसीलिए क्षमा मांगने वाले के हृदय में सरलता निवास कर जाती है।
हम दिन में कितने काम करते हैं जिनमे अनजाने ही अनेक सूक्ष्म जीवों का घात होता है, कुछ को तो हम बचा सकते है कुछ को बचाना हमारे बस में नही होता, उनके प्रति विनय पूर्वक क्षमा भाव रखना चाहिए ।
इसे ऐसे समझिए आपने हाथ धोये, किसी दूसरे ने भी हाथ धोये, आपने उस पानी मे हाथ धोये जिसमें करोड़ों सूक्ष्म जीव हैं , साबुन से सारे मर गए, आपको बेमतलब ही उनके घात का कारण बनना पड़ा, दूसरे व्यक्ति ने थोड़ा जतन किया उस पानी को छानकर प्रयोग किया , अधिकतर जीव बच गए, और बाकी के जिन जीवो का घात हुआ उसका पाप भी उस दूसरे व्यक्ति को नहीं लगेगा क्योंकि उससे जितना हो सकता था उसने बचाने की कोशिश की , उसके हृदय में उन सूक्ष्म जीवो को मारने के भाव नही थे , उनके लिए ये भी नही था कि मरे या जीयें मुझे क्या फर्क पड़ता है, बल्कि उसके मन मे ये रहा कि थोड़ा सा प्रयास करके बचा सकूँ तो बचा ही लूँ ।
हमारे कार्य हमारे हृदय के भावों से प्रेरित रहते है, कर्मों को अच्छा बनाना है तो पहले भावो में सरलता लानी होगी , भावो को सरल बनाने की कला ही सिखाता है ये क्षमा धर्म।
आख़िर में आते हैं हम, विडम्बना ये है कि हम दूसरों के साथ किये अपराधों को तो देख लेते है , माफी मांग लेते है लेकिन अपने साथ हम जो अपराध करते हैं उन्हें हम कभी स्वीकार भी नही करते और न ही कभी उसके लिए खुद से माफी माँगते हैं।
सब जानते हैं कि उनकी आत्मा का कल्याण किसमे है लेकिन हम उल्टे रास्ते पर चलते हैं, झूठ छल अन्याय शोषण इन सबके द्वारा खुद का ही घात करते रहते हैं, अपनी ही आत्मा को प्रतिदिन कमजोर करते रहते हैं, और आज के समय में मनोरंजन के इतने साधन हैं कि मन की शांति खोजने का वक्त ही किसी के पास नही है, कितना अनमोल मानव शरीर और समय मिला है हमें , लेकिन हम इसे व्यर्थ बिताए जा रहे हैं , कभी खुद के पास बैठते ही नही, खुद की सुनते ही नही, खुद को समझने का प्रयास ही नही करते ।
ये सब भी तो अपराध हैं, जो हम खुद के प्रति कर रहे हैं।
पशु पक्षी सूक्ष्म जीवों और कीड़े मकोड़ो में कहाँ इतना ज्ञान होता है कि वे अपनी आत्मोन्नति के लिए कुछ कर सके, केवल मानव जीवन मे वो ज्ञान प्राप्त करने की क्षमता हमे मिलती है कि हम अपने आत्मा के निकट जा सकें, अपने निकट आ सकें , उसे सशक्त कर सकें , अपना आराधन करके अपने सम्पूर्ण स्वरूप को प्रकट कर सकें ।
खुद से क्षमा मांगिए और कुछ पल बिताइए अपने साथ , अपने लिए, सहज सरल और शान्त पलों में महसूस करके देखिए खुद को ।
जय जिनेन्द्र।
note - आप सोच रहे होंगे कि मैं तो प्रवचन देने लगी, क्या करे जब आध्यात्मिक चर्चा हो तो शैली ऐसी ही हो जाती है , बाकी मैं तो आपकी वही आस्था हूँ , आपसे कुछ सीखती , अपनी कहानियों से कुछ सिखाती हुई आस्था 😊😊😊🙏🙏🙏
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